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________________ मुलाराधना आश्वासा यांमक समुदायसे एक छोटे बांसको छेद करके निकालना सुलभ है परंतु उसमेंसे उसको उखाडना जैस बहुत कठिन है वैसा ना को पंचन्हिमारे रियो सिकाकार बसायन करना बहुत कठिण है. रागदेपोंका नाश करनेकी यद्यपि प्रतिज्ञा कीथी तथापि शरीरसंल्लेखना जिसने की है, जो क्षुधादि परीपहोंसे पीडित है ऐसा अल्प शक्तीका धारक क्षपक श्रुतज्ञानमें एकाग्रता न होनेस अज्ञ आचार्य के समीप रागडेपोपर विजय नहीं पा सकता है. और चारित्राराधक नहीं होता है.. यह जीव आहारमय है, मानो अमसे ही उत्पन्न हुआ है, क्योंकि अन्न ही प्राणरक्षणका मूल कारण है. अनके त्यागसे यह आत्मा म्लान होता है, आतध्यानी होकर दु:खसे पीडित होता है, तब ज्ञान और चारित्रमें रममाण नहीं होता है. श्रुतोपदेश और शिक्षाविशेषरूपी भोजनसे जिसने क्षधा और प्यासका परिश्रम नष्ट किया है ऐसा वह क्षपक ध्यानमें एकाग्र होता है, अर्थात् बचतज्ञ आचार्यका आश्रय करनेसे क्षपकको श्रुतोपदेश और विशिष्ट उपदेश मिलनेस शुधापाका परिश्रम नए होता है और बान्मध्यानमें बह स्थिर होता है परंतु अल्पज्ञके आश्रयसे वह क्षुधादि परिपड़ोंका दुःख नहीं सहन कर सकनेम आर्तध्यानी बनता है. अगीतार्थ आचार्य क्षुधा और तपासे जय श्पक पीडित होता है तब उसको उपदेशादिक नहीं करता है, अतः ऐसे आचार्यके आश्रयसे क्षपकको समाधि मरणका लाभ होता नहीं. A सो तेण बिडझंतो पप्पं भावस्स भेदमप्पसुदो ॥ कलुण कोलुणियं वा जायणकिविणत्तणं कुणह ॥ १८ ॥ ताभ्यां प्रपीडिता बाढं भिन्नभावस्तनुश्रुतः रोदनं याचनं दैन्यं करुण विदधाति सः॥४५१॥ विजयोदया-सो नण अपकस्तेन प्रथमेन द्वितीयेन धा । पिंडसंतो विविधं दद्यमानः । पम्प भावस्स भरमापसुदो प्राप्य शुभपरिणामस्य भेद अस्पतः । कलुणं कोलुणियं च कु.गदि यथावतां करुणा दीनता च भवति तथा करोति । जायणं च कुणदि यांचां वा करोति । किविणत्तर्ण कुणदि दीनता या करोति ।। ६१५
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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