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मुलाशघना
आश्वासः
नहीं होता है. उसको पापसे दुर्गतिकी प्राप्ति होती नहीं है. क्योंकि उसका ज्ञान समस्त पापको नष्ट करता है. इस गैतीका विवेचन करके जो हिसादि पापोंसे निर्भीक बना कर उसमें प्रवृत्त करता है वह सम्मोहभावना भाता है ऐसा समझना चाहिये. यह एक उन्मार्गका उपदेशक है. और भी उन्मार्ग उपदेशका विवेचन करते हैंशास्त्रमें आहारादिक दान पात्रको देना चाहिये एसा उपदेश है, वह दान जैसे पापका कारण नहीं है वैसे यज्ञ में ग्राणिको दिसा करनपर भी वह पापके लिये नहीं है. क्यों कि शास्त्रमें प्राणिओंका यज्ञ करने का विधान है. यशके लियाह पशु अामदेवने उत्पन्न किये हैं. यज्ञ करनेवाला, यज्ञ करानेवाला और पशु ये सब मंत्रोंके माहात्म्यसे स्वर्ग को जाते हैं. यह भी उन्मार्गोपदेश है. ऐसे उपदेशसे सम्मोही देवों में जन्म मिलता है, संवर, निर्जरा व संपू. ण कमाका नाश करने के लिये आत्माके सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और चारित्र शरण हैं. इनको आचार्य मार्ग कहते । हैं. इस मागस परंपरासे अच्याचाध-अर्थात् दुःस्व रहित अनंत सुख मिलता है. परंतु ऐसे सच्चे मार्गको जो दूषण लगाला है वह मार्गदपक है, रनत्रयात्मक मोक्षमार्ग जो भयोको दिखाता है वह श्रुतज्ञान मार्ग है. उस मार्गरूप श्रुतज्ञानमें जो दूपण लगाता है अथील उसकी बिरुद्ध घ्याख्या करता है. वह जीव सम्मोही देवामें उत्पन्न होता है. रन्जनयही मुक्तिका मार्ग है परंतु उसके विरुद्ध जो आचरण करता है तथा संशय, विपर्यय व अनध्यवसायात्मक जानन जो पदायक समय स्वरुपको पहचानता नहीं है. वह मोहित होकर जिनमें कामविकार और रागभावक्री नीग्रता एस कुन्भिन देशों में उत्पन्न होना है.
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भावनामा फर्ट दर्शयति भयोपजननाय--
एदाहि भावणाहिं य निराधओ देवदुग्गदि लहइ ॥ तत्तो चुवो समाणो भमिहिदि भवसागरमणंतं ॥ १८५ ॥ रत्नत्रयं विराध्याभिभावनाभिर्दिवं गतः ॥
भीषणे भवकांतारे चिर थंभ्रम्यते च्युतः ॥ १८७ ॥ विजयोदया--पदादिभावणार्हि य पताभिः भावनाभिः । वेचदुग्गई लहदि वेचेषु दुष्टा या गतिस्तां गच्छति । विराधगो रजत्रयाच्युतः। तत्तो चुलो समाणो तस्या देवदुर्गतेश्च्युतः सन् । भमिहिदि भ्रमिष्यति भवसागरमंसातीतं ।