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________________ मूलाराधना ८८१ मूलारा - अणुसज्ज माणगे दर्शितेप्याहारगृद्धिदोषे पुनराहारे रागमति क्षपके । समाधिामरस समाधिमरपार्थिनः क्षपकस्य संबंधिनं । सर्वमाहारमेकैकं छापयन्सूरिस्त्याजयित्वा । पोराणमाहारे प्राक्तने भोजने स्थापयति स्थिति करोतीति संबंधः || अर्थ – निर्यापकाचार्य के द्वारा आहारभिलाषा के दोष बतानेपर भी क्षपक उस आहारमें यदि प्रेमयुक्त ही रहा तो समाधिमरणकी इच्छा रखनेवाले उस क्षपकके संपूर्ण आहारोंमेंसे एक एक आहारको घटाते हैं. अर्थात् क्षपकसे एकेक आहारका क्रमसे त्याग कराते हैं. अणुपुत्रेण विदो संण सव्यमाहारं ॥ पाणयपरिक्रमेण तु पच्छा भावेदि अप्पा || ६९९ ।। क्रमेण वैराग्यविधौ नियुक्तो निरस्य सर्व क्षपकस्ततोऽन्नं ॥ आराधनाध्यानविधानदक्षैः स पानकै भावयते श्रुतोक्तों ॥ ७२७ ॥ इति हानिः । विजयोदयादचिदो स्थापितः सूरिणा प्राक्तनाहारे क्षपकः पचारिक करोत्यत आह- सव्यमाहार, अशनं स्वायं, मेण संव उपरिकमेण दु पानकास्येन परिकरेण । अप्पा आत्मानं यति हानिया ि तथा प्राक्तनाद्वारे स्थापिततीयाह- मूलारा---अणुपुब्वैण अनुक्रमेण । संग त्यक्त्या । सव्वं पानकर्ज त्रिविधमाहारं । पाणयपरिक्रमेण दु पानकाख्येन परिकरेणैच । पच्छा पश्चिमका भावेदि चतुर्विधाहारत्यागयोग्यं स्वं करोति क्षपकः ॥ इानिः सूत्रतः २० अंकतः ४० ॥ अर्थ -- आचार्य उपर्युक्त क्रमसे मिष्टाहारका त्याग कराकर क्षपककको साधे भोजन में स्थिर करते हैं. तब वह क्षपक भात वगैरे अशन और अपूप वगैरे खाद्य पदार्थोंको क्रमसे कम करता हुआ पानकाहार करनेमें अपनेको उद्युक्त करता है. इस प्रकार हानिनामक प्रकरण समाप्त हुआ आश्वास ८८१
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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