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________________ मूलाराधना आश्वास १२७३ विजयोदया-हंद्रियकसाय गुरुपत्तणण तीद्रियकषाय परिणामतया । मुहसीलभाविदो समणो सुसमाधिभाषितः श्रमणः। करणालसो प्रयोदशनिक सुनिया अजसः सनिता साना । सवनि सेवते । ओसण्णसेवाओ अब सनसेयाः । भ्रष्टचारित्राणां क्रियासु प्रवससे इति यावत् ॥ ओसगणो ॥ इंद्रियकषायपरतंत्रतया साधुसंघाटकबहिश्वरमवसन्नादिरूपेण संयमभ्रंश च्याविख्यासुरादाववसन्न गाथायेनाह मुलाय--ओसण्णसेवणाओ भ्रष्टचारित्राणां क्रियाः । पडिसेतो मार्गप्रातिलोम्येन भजन ॥ भ्रष्टक्रियाचरणकारणं भणसि मूलारा-गरुगतगेण तीव्रपरिणामेन । सुहसीलभाविवो शमैकाप्रतावासितः । करणालसो आवश्यककायइंशस्त्राध्यायध्यानेषु, त्रयोदशसु क्रियासु या शिथिलः । अवसन्नः ॥ इंद्रियकार्यों में प्रकृति करनेसे अनेक दोष उत्पन्न होते हैं ऐसा कहते हैं. अर्थ-भ्रटचारित्र मुनिओंकी क्रिया रत्नत्रयमार्गके विरुद्ध होकर जब मुनि करते हैं तब वे मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होते हैं। और साधुवर्गसे अलग रहते हैं. अर्थान संघका त्यागकर स्वच्छंद होते हैं. तीन कपाययुक्त होकर मुनि इंद्रियोंके विषयों में आसक्त होते है. इस आसक्तिसे वे मुखशील होकर समिति, गुप्ति और महावत ऐसे तेरह प्रकारके चारित्रमें आला होजाते हैं और भ्रष्ट मुनिओक आचरणमें प्रवृत्ति करते हैं. काम केई गहिदा इंदियचोरेहिं कसायसाबदेहि वा ॥ पंथं छंडिय णिज्जंति साधुसत्थरस पासम्मि ॥ १९९६ ॥ हृषीकतस्करीमैः कषायश्वापदैरपि ।। विमोच्य नीयते मार्गे साधुः सार्थस्य पार्श्वतः ।। १३४१ ।। विजयोषया-कई गरिदा वियचोरोति केचिद्गीता इंद्रियचौरः । कसायसाघदेहिं तहा तथा कपायश्वापदेच गृहीताः । साधुसत्यस्स पंथं इंडिय साधुसार्थस्य पंचानं त्यक्त्वा । पासम्मि णिज्जति पाय यांति ।। पाश्वस्थ गाथापंचकेनाहमुळारा-छविय त्याजयित्वा । पासाओ पावे रत्नत्रयाभास इत्यर्थः ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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