SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लाराधना १२ विराजमान जो शुध्दात्मा वह नो आगमभावसिद्ध है. यहां नो आगमभावसिध्द को ही सिध्द समझना चाहिए. शंका- प्रकरण अथवा विशेषण के बिना सामान्य शब्द की अभीष्टार्थ में प्रवृत्ति हैं यह समझना कठिन बात है. अतः सामान्य सिध्द शब्द से नो आगम भावसिध्दका ग्रहण यहां कैसा हो सकेगा ? उत्तर- अतएव आचार्य महाराजने 'चतुराना प्राप्तान् ' यह विशेषण देकर यहां नो आगमभाव सिध्दका ही ग्रहण करना योग्य है ऐसा प्रकट किया है. सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्शन, व संपूर्ण कर्मरहितता यह चार आराधनाओंका फल है, अर्थात् सम्यन्दर्शनादिगुणोंसे परिपूर्ण होना- ट्रप होना यह आराधनाका फल है. फलं पत्ते - क्षायिक सम्यग्दर्शन, केवलज्ञान, दर्शन व सर्व कमसे मुक्तता ऐसे स्वरूपसे सिद्ध परमात्मा युक्त होगये है, यह आराधनाका फल उनको मिल गया. अरहंत भी जगप्पसिद्ध-जगत्प्रसिद्ध है. निर्दोष स्तज्ञानरूपी नेत्रको धारण करनेवाले आसन्न भव्य जीवरूप जगतमें अरहंत प्रसिद्धि पाचुके हैं अतः वे जगत्प्रसिद्ध है. अरहंते इस शब्द के आगे 'च' शब्दक योजना नहीं की है तो भी यहां समुचयार्थ समझ लेना. व शब्द के बिना भी समुच्चयार्थका बोध होता है; उसका उदाहरण यह है-' पृथिव्यप्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन ' इति इस वाक्यमें च शब्दके विना सर्व द्रव्यों का वैशेषिक मतवालोंने संग्रह किया है. मोहनीय कर्म नष्ट करनेसे, तथा ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म दग्ध करनेसे जो इंद्रादिक के द्वारा विशिष्ट पूजाको प्राप्त हुए हैं ऐसे जिनेश्वरोंको अरहंत यह अभ्यर्थ नाम प्राप्त हुआ है, जैसे सर्वनाम शब्द समस्त शब्दार्थों की संज्ञा हो जानेंसे अन्वर्थ हैं. अथवा ' जगप्पासिद्धे' यह अर्हत्परमेष्ठीका विशेषण समझना चाहिए. क्योंकि गर्भ जन्मादि इतर पंचकल्याण स्थानों में त्रैलोक्यके द्वारा वे महात्मा से विन होते हैं। ऐसे इतर सिध्दपरमेष्ठी सेवित नहीं हैं. कोई भी वस्तु किसी प्रकार से प्रसिद्ध होती ही है. अप्रसिद्ध ऐसी कोई वस्तु नहीं है अतः जगप्यसिध्दे यह अर्हन्तका विशेषण व्यर्थ दीखेगा. परंतु व्यर्थ नहीं है. जैसे अभिरूपाय कन्या देया रूपवानको कन्या देनी चाहिये ऐसा इस वाक्यका अर्थ है. परंतु रूप रहित कोई पुरुष जगत में रहता ही नहीं. सभी पुरुषोंमें रूपगुण रहताही हैं अतः यह वाक्य व्यर्थ होता है ऐसा नहीं. अभिरूप इसका अर्थ विशिष्टरूपवान् अर्थात् सुंदर पुरुष ऐसा करने से अध्याय ? १२
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy