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मलाराधना
भाश्वासः
शंका-' देविगमाणुसतेरिक्खगा उवसग्गा जस्य' अर्थात् देवकृत, मनुष्यकत, तिर्यचकृत उपसर्गों मेसे मनुष्यकृत उपसर्ग एक उपसर्ग है गेमा पिडली मान लिया है. माहुकुन उपद्रव अयना बंधुकृत उपसर्ग मी मनुष्यकृत उपसर्गमें अन्तर्भूत होता है अतः पुनः इस गाथामें शत्रु व बंधुकत उपसर्गका वर्णन क्यों किया है ?
उत्तर--पूर्व गाथामें मनुष्योपसर्गका खुलासा इस प्रकार समझना चाहिये-बंधन, ताटन, वृक्षशाखासे लटकाना इत्यादि शरीरोपद्रव जो परकेद्वारा किये जाते हैं उनको मनुष्योपद्रव कहना चाहिये. इस सूत्रमें बंधु वा शत्रुकृत उपद्रवका अभिप्राय यह है-यदि तुम अपना मुनिपना न छोहोगे तो तुझारी जिहा हम निकालेंगे. इत्यादि शब्दोंके द्वारा उपद्रव करना ऐसे उपद्रव उपस्थित होने पर मुनि समाधिमरणका स्वीकार करते हैं.
विद्युत्पातके समान भयंकर और जिसमें जीनकी संभावना नहीं है ऐसा दुष्काल आपडनेपर भी मुनि भक्तप्रत्याख्यानके लिये योग्य हैं. कारण एसे दुष्कालमें अन्न मिलताही नहीं, अतः चारित्रनाश न हो इस हेतुसे उनको सल्लेखना करना योग्य है. जिससे उनके धर्मका रक्षण होगा.
जिसमें ऋर प्राणी हैं और जिसमेंसे पार पाडनेवाला मार्गोपदेशक भी नहीं है ऐसे जंगल में मुनि दिमूद हो जाते है. तथा वह जंगल पाषाण कंटकादिकोंसे व्याप्त होनेसे मुनिको उसमें विचरना अशक्य सा मालूम हो नो वे ऐसी अवस्थामें प्रत्याख्यान करनेके लिये योग्य हैं,
चरखं व दुब्बलं जस्स होज्ज सोदं व दुबलं जस्स ॥ जंघाबलपरिहाणो जो ण समत्थो विहरिदुं वा ॥ ७३ ।। दुर्थली यस्य आयेते श्रवणी चक्षुषी तथा ॥
विहन समों यो जटायलविवर्जितः ।। ७५ ।। विजयोदया-चालु व चक्षुर्वा । चर्यान्वशर्यतीति चक्षुः । दुम्बल घुर्वलं मल्पशक्तिकं सूक्ष्मवस्तुदर्शनाक्षम । जस्स यस्य । होज्ज भवेत् । सो व श्रोषा श्रूयते शम्द उपलभ्यते येन तत् थोत्रम् । तुम्बलं शम्योपलविध जननसामर्थ्ययिकलं । सोप्याईति । अंघायलपरिहीणो जंधायलपारिहीनो । जो यः । ण समत्थो न शक्तो । विहरिदु था गर्नु वा सोप्याईति ॥