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मूलाराधना
यह मोलह आना झूट है. कुरूपताको मिटानेवाले वस्त्रादिकोंकी सिद्धपरमेष्ठीको बिलकुल आवश्यकता नहीं है. वे सिद्ध भगवान शरीररहित हैं, अशरीर आत्मामें सकल दुःखोंका नाश होना यही सुख है. यह पूर्ण, अनंत और अनंतज्ञानात्मक है. आत्मा में रहा हआ श्रुतज्ञान जीवादि पदार्थों को जानने में निमित्त होता है. जैसे अरहंत और आचार्यादिक शुभोपयोग के लिय कारण है बसे उनके प्रतिचिंच भी शुभोपयोगके लिये कारण हैं. यह संक्षेपसे अवर्णधादका निरसन हुवा.
एवं दसणमाराहतो मरणे असंजदो जदि बि कोवि ॥ सुविसुद्धतिब्बलेस्सो परित्तसंसारिओ होइ ॥ १८ ॥ मृतावाराधयमेवं निश्चरियोऽपि दर्शनं ।।
मकृष्टशुद्धलेश्याको जायते स्वल्पसंमृतिः ।। ५१ ॥ विजयोदया-वमियनया गाथया असंयासम्यग्दृऐः सम्यक्त्यमागध यतः फलमाची पयमिति पत्रोक्त पग मर्शः। Aध्यमेव मोक्षमागः प्रकृयः इति । प्रधानाः शंकादिकमपाकुर्वन्ति उपटणादिभिः । सभ्य वन्वाय शक्ति वर्धयन्समीनिं वर्शनविनग पादयन ।दसणं कानवाधिरता निरादयन्मरण नयपधनुनिक जना जदि वि यद्यव्यसयतः। सुविसुनिव्वलेस्सो कापायानरं जिना योगवृत्तिले श्या, साघोढा प्रयिमता हर्नरलकापीततेजःपपल ले भन्यामेदेन । तपाशुमलेदयानिरासार्थ मुविसहणं । तीमहणं परिणामप्रकोपादानाय । सुबिशुद्धा तीवा लेल्या यस्य सुविशुद्धतीमलेश्यः । परित्तसारिओ अल्पचतुर्गतिपरिवर्तः 1 होदि भवति । अल्पसंसारता सम्य. पवाराधनायाः फलवेन दर्शिता ॥
एवंविधसम्यक्तत्वाराधनायाः फलमाचटे
मूलारा-आराईतो निष्पादयन् । सुविसुद्धातव्वलेरसो सुविशुद्धतीत्रले श्यः विशुद्धा शुभा सीत्रा परिणामप्रकर्षयती लेश्या कषायानुरंजिता योगप्रवृत्तिर्यस्य सः । परित्त परिमितः । सम्यक्त्वाराधनायाः स्वस्पसंसारत्वमित्यर्थः ।
अर्थ-सम्यग्दर्शनकी आराधना करनेवाले असंयत सम्यग्दृष्टीको कौनसा फल मिलता है इसका इस गाथामें आचार्यने उल्लेख किया है. उपगृहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये सम्पग्दर्शनके चार गुण हैं इनसे सम्यग्दर्शन शंकादिदोषोंसे रहित हो जाता है. सम्यग्दर्शनमें विशुद्धि
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