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मूलाधना
आश्वास
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वस्तु उत्पन्न होती है जैसे बीज होनेसे अंकुरोत्पत्ति होती है. यदि धर्म मुखदायक है तो वह उत्पन्न होनेफे अनंतर ही सुस्व क्यों उत्पन्न नहीं करता है, ऐसा कहना यह धर्मावर्णवाद है...
साधु, आचार्य और उपाध्याय ये सर्व मुनिराज अहिंसावतका पालन करते हैं ऐसा जनलोक कहते हैं परंतु इन मुनिका आहिमावत युक्तीसे सिद्ध होता नहीं. ये सर्वमुनि पांच स्थावरजीब ब और उस जीत्रके समुदायमें बिहार करते हैं, इसलिये ये आहेगक कैसे होंगे ? ये साधु केशलोच, उपवासादिके द्वारा आपने आत्माको दुःख देते हैं. इसलिये इनको आत्मवधका दोप क्यों न लगेगा पाप और पुण्य हार्टगोचर होते नहीं है तो भी ये मुनि उनका और उनके नरक, स्वर्गादिफलोंका वर्णन करते हैं. उनका यह विवेचन झूटा होनेसे असत्य बोलनेका दोष उनसे होता है. इत्यादि कहना यह साधु अवर्णवाद है. इसी तरह आपार्य और उपाध्याय परमेष्ठीका भी अवर्णवाद समझना चाहिये। : प्रवचनाबर्णवाद-एक वस्तूमें परस्पर विरुद्ध स्वभाव नहीं रहते हैं. तो भी एक वस्तूमें उनकी कल्पना करना यह युक्ति संगत नहीं है. जो मनुष्य एकवस्तुमें बिरुद्ध स्वभाव रहते है ऐसी श्रद्धा करता है वह सम्परष्टि नहीं है. क्यों कि उसके श्रद्धानने विपरीत ज्ञानका अनुसरण किया है. उसे मृगतृष्णा में की गई श्रद्धा मिथ्याज्ञानका अनुसरण करनेवाली होनेसे मिथ्या मानी जाती है. जैनलोगोंका चारिख भी मिथ्याज्ञानका अनुसरण करता है अतः यह भी सच्चा नहीं है. दोरी में सर्पकी श्रांति होनसे जैसे रज्जुका त्याग हो जाता है. इस त्यागके ममान ही मिथ्याज्ञानसे होनेवाला चारित्र भी भ्रांत है. इत्यादि कहना प्रवचनावर्णवाद है.
अब उपर्युक्त अवर्णवादोंका असत्यपना संक्षेपमें दिखाते है. अर्हन् पुरुष होनेसे रास्तेसे जानेवाले प्रवासीके समान सर्वझ और वीतराग नहीं है यह कहना असत्य है, क्योंकि असर्वझपना व रागद्वेषीपना इनसे पुरुषत्वका अविनाभाव नहीं है. जैनलोक भी जैमिनी, बुद्ध वगैरह पुरुष भी भेडियाँको पालनेवाले मनुष्यके समान है ऐसा कह सकेंगे. अर्हन सर्वज्ञ और वीतराग है इस बातका विवेचन अन्य न्यायग्रंथों में होनेमे हम यहां करते नहीं. जो पदार्थ केवल दुःख प्रतीकारार्थ ही है उनमें मूढ लोक सुखमाधनना मानते हैं. स्त्रीके साथ संभोग करना यह वास्तविक सुख नहीं है, क्योंकि स्त्रीको भोगते समय शरीरको बहुत आयामयुक्त करना पड़ता है अतः उसको सुख कहना