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मूलाराधना
आसाम
अत: इसका स्पष्टार्थ इस मुजब है-जमे २ वनिगुणोंशा स्मरण होता है बमे २ यति चारित्रगुणोंपर आरोहण करने में. परंतु जिनको यतिका स्मरण नहीं होता है वे अपने में यतिगुण लानका श्यल नहीं करते हैं. यतिगुणों का स्मरण होनसे उनमें सचि पैदा होती है. भव्यजीवोंका गुणोंपर प्रेम रहता है अर्थात वे गुणोंपर प्रेम करत है. संसारभौतिक विपयम उत्पन्न हुई श्रद्धा यतिको रत्नत्रयमें दृढ़ करती है. इस गाथामें श्रद्धा नामक गुणका विवेचन किया है.
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माची प्रार्या वात्सल्यं नाम दर्शनम्य गुणो भवतीनाच
सहाए बट्टियाए बस्छल्लं भावदो उवक्रमदि ॥ तो तिव्वधम्मराओ सव्वजगमुहावहो होइ ॥ ३१६ ॥ विना गुणपरीणानं यावत्यं करोति नो । ग्यतस्ततो मुमुक्षूणां वैयावृत्यं व्यक्ति सः ॥३१४।। प्रवृधर्मसंवेगः श्रद्धया वर्धमानया ॥
यतिः करोति वात्सल्य लोकद्वयसुखप्रदम् ॥३१५|| बिजयोदया-सट्टाप बदिदाए श्रद्धया वर्द्धितया। वच्छल भाववो उपकमवि वात्सल्यं भाषतः मनसा प्रारभते । तो ततः । तिब्धधम्मरानो धर्मे तीवो रागः । तीवधर्मरागो वा यतिरात्मनः सकलं सुखमारहति । वात्सल्य इत्येतन्याख्यातमनया गाथया।
श्रद्धावृद्धौ च वात्सल्य भाम दनस्य गुणो भवतीत्याह--
मूलारा- भावदो मनमा । सव्वजगसुहावहो सर्वेषु जगत्सु यत्सुखमैंद्रियिकं अतींद्रियं वा तदावहत्याकनि यतिः ।
गुणोंका स्मरण होनेसे रुचिगुण उत्पन्न होता है और उसके बढनेसे वात्सल्य नामक सम्यग्दर्शन गुण उत्पन्न होता है. इसका वर्णन ग्रंथकार करते हैं -
अर्थ-श्रद्भागुण बदनसे मुनि मनसे यतिओंपर वात्सल्य करते हैं, अर्थात उनका आदरसत्कार, मेवादिक कार्य यथोचित करते हैं. इस वात्सल्य भावस धर्ममें तीन प्रेम उत्पन्न होता है, जिसका धर्मपर तीत्र अनुराग
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