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मूलाराधना
प्रायासः
जीवादीनां सत्ये अनेकांतात्मकत्थे चोपजातं अश्रद्धानं अरुचिमिथ्यात्वमिति । परोपदेशं विनापि मिथ्यात्वोदयादुपजायत यदथवा सदनभिगृहीतं मिथ्यात्वं ।
यद्वान्मिध्यादृष्टिःयातन्मिथ्यात्वं किं कतिविध पेत्यत्राह--
मूलारा--तच्चाण अत्याणे अनराद्रव्यमान कानां जीपादाना, असा अधाना यानि तरपनि अविपरीतानि रूपाणि तेषां । संसइदं कि सथतायां मुक्तिनिधतायां वत्यादि तत्वानवधारणात्मको दर्शनमोहोदयनिमित्तः प्रत्ययः संशयः । तेन सहचरितं तत्त्वाश्रद्धानं संशयितं, संशयः संजातोऽस्येति व्युत्पत्तेः । न हि संदिहानस्य तत्त्वश्रद्धानमस्ति ।। इदमित्वमेषेति निश्चयसहभावित्वान्तस्य । अभिग्यहिदं । परोपदेशादाभिमुख्येन स्वीकृतं परोपदेशज इत्यर्थः । तथा हि-न सति जीवादीनि इति गृहाग । सति बा तानि, नित्यान्येवेत्यादि परवचः श्रुतवतो यदा तेषां सत्वे अनेकांतात्मकत्वे या अश्रद्धानं स्यात्तदाभिगृहीतमित्युच्यते । तच्चतु—क्रियावाद्यादिमतभेदान् । ते यथा--
असिदिसदं किरियाण अफिरियाणं च होदि चुलसीदि ।
सत्तट्ठी अण्णरणी वेगइयाणं च होदि बत्ती ।। अगभिागहिद परोपदेशं बिनापि भिल्यात्योदयाजात ।
जिसको आप मिथ्यादृष्टि कहते हैं उसका क्या स्वरूप है ? तथा मिथ्यात्वके कितने भेद हैं ? इस प्रश्नका | उत्तर आचार्य देते हैं
अर्थ-अनंत द्रव्यपर्यायोसहित जीवादि पदार्थाका श्रद्वान न करना मिथ्यादर्शन है. इस मिथ्यादर्शनके ! संशयमिथ्यात्व, अभिग्रह मिथ्यात्व और अनभिग्रह मिथ्यात्व ऐस तीन भेद है.
विशेषार्थ---गाथामें ' तुच्चाण होइ अस्थाणं ' ऐसा वाक्य है उसमें अर्थ शन्दका तत्व' यह विशेषण व्यर्थ मालूम होता है. क्योंकि जीबादिक अर्थ तयरूपही रहते हैं. अतस्वरूप मिथ्यारूप नहीं होते हैं. इस शंकाका उत्तर आचार्य देते हैं.
मिथ्याज्ञानीओने जीवादि पदार्थ सर्वथा नित्यही हैं अथया अनित्यही हैं, एकही है, अनेकही हैं ऐसा उपदेश किया है. परंतु वस्तु सर्वथा नित्यादि एक एक धर्ममय है ऐसा सिद्ध नहीं होता है. अत: एफेक धर्मात्मकही वस्तुस्वरूप समझना मिथ्यात्व है. एक एक धर्मात्मक वस्तु अतय है. उससे व्यावृति करनेके लिये ' तच' यह विशेषण ग्रंथकारने जोड दिया है,