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जागधना
आश्वासः
यहां तच्च शब्द भाववाचक है. जो पदार्थ जिस स्वरूपमें विराजमान है वह उस रूपसे रहनाही तच कहलाता है, जैसे चेतना आत्माका स्वरूप है. इसलिये हमेशा आत्मा चैतन्यस्त्ररूपमें रहता है. अर्थशब्द भावपानका साया है. सी. पोवारण कमेकाले पदार्थको भाववान कहते हैं, तच्च शब्द और अर्थ शब्द ये दोनो शब्द भिन्नाधिकरणवृत्ति है अतः इनकी समानाधिकरणता कैसी जुडेगी?
आचार्य इस शंकाका उत्तर देते है --भात्रवानसे भाव अभिन्न होता है. जीवसे चतन्य अभिन्न है. जीय भाववान है और चैतन्य भाव है. चैतन्य जीवसे अपृथक् है अतः दोनोंकी समानाधिकरणता जुड़ सकती है. अतः पुद्गल, धर्मादिक पदार्थों में भी अपने अपने स्वरूपसे अभिन्नता होनेसे समानाधिकरणता सिद्ध होती है.
अथवा भित्रधिकरणता माननेसेभी कुछ हानि नहीं है, इसलिये जीवादि पदार्थोंके जो तस्य अर्थात् सच्चा स्वरूप ऐसा अभिप्राव भिमाधिकरणता माननेसे सिद्ध होता है...
संशयितमिथ्यात्व-जिसमें तत्त्वोंका निश्चय नहीं है ऐसे संशयज्ञानसे संबंध रखनेवाले श्रद्धानको संशयमिथ्यात्व कहते है, जिसको पदार्थके स्वरूपका निश्चय नहीं है अर्थात् जो व्यक्ति संशययुक्त बनी है उसको जीवादिकोंका स्वरूप ऐसा ही है अन्य नहीं है ऐसी तस्वविषयक सच्ची श्रद्धा नहीं रहती है. जीवादितचोंपर जब सच्ची श्रद्धा होती है तब उनका निश्चयज्ञान अवश्य रहता ही है.
अभिगृहीतमिथ्यात्व---कुगुरूके उपदेशसे जीवादितत्वोंपर जो अश्रद्धा पैदा होती है यह अभिगृहीतमिथ्यात्व है. जीवादिकतत्व नहीं है, अथवा वे अनित्य ही है, वा नित्य ही है ऐसा दुसरोंका उपदेश सुनकर जीवादिकोंके अस्तित्वमें अथवा उनके अनेक धर्मोंमें अश्रद्धा होती है. यह अभिगृहीतमिथ्यात्व है.
____ अनभिगृहीतमिथ्यात्व-दुसरेके उपदेश बिना ही जो अश्रद्धान मिध्यात्र कर्मके उदयसे हो जाता है. यह अनभिगृहीतमिथ्यात्व हैं.
मिश्यात्पदोषमाहात्म्यख्यापनायाइ
जे वि अहिंसादिगुणा मरणे मिच्छत्तकड़ागदा होंति ॥ ते तस्स कडुगदोडियगदं च दुद्धं हवे अफला ॥ ५७ ॥