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मुलाराधना
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भजते भरणं बालं सम्यग्दृष्टिरसंयतः !
मिथ्यात्वाकुलितस्वान्तो बालबालमपास्तधीः ॥ ३३ ॥
विजयोदया— अविरदसम्मादिट्टी इति प्रसिद्धार्थत्वान्न व्याख्येयं । अत्रावसरे इदं घोद्यमाशस्यते । योच्छ आराधणं कमको इति प्रतिज्ञातं । सा च द्विप्रकाश दर्शनाराधना चारित्राराधना चेति । तज्ञ्याख्यानमकृत्वा भरणविकल्पास्तत्स्वामिनश्च कस्मानिर्दिश्यते । प्रस्तुत परित्यागमप्रस्तुताभिधानं च न क्षमंले विद्वांसः । अत्रोच्यते न अप्रस्तुतं अंतरनिर्विषु मरणं । आराधनानुगतमरणस्यैष शास्त्रेऽमिवेत्त्वात् । आराधनायाच आराधकमंतरेणासंमवात् । स्वामी च निर्देष्टव्य पति सुरेरभिप्रायः ।।
अशस्थाप्रशस्थत र मरणद्वयस्वामिनी निर्दिशति - मूलारा अविरसम्माइड इति ।
मिच्छादिट्टी य ।
नो इंदियेसु विरदी को जीवे यावर तसे वापि जी सददि जित्त सम्माइली अविरदी सो ॥ ६ ॥
मिच्छत्तं बदतो जीवो विवरीयदंसणो दोदि ॥ णय धम्मं रोचेदि महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥ २ ॥
बालमरण और बालबालमरण के स्वामी कोन होते है यह विषय आचार्य विशद करते हैं.
हिंदी अर्थ - अविरत सम्यग्दृष्टि जीव चौथे बालमरणसे मरते हैं अर्थात् अविरतिसम्यग्दृष्टीके मरणको बालमरण कहते हैं, और मिथ्यादृष्टी जीव जिस मरणसे मरते हैं वह बालबाल नामका पांचवा मरणभेद है. यहां शंकाकार ऐसी शंका करता है—' योच्छं आराधणा कमसो' ग्रंथकारने 'मैं क्रमसे आराधनाओंका विवेचन करूंगा' ऐसी प्रतिज्ञा की है. वह दर्शन आराधना और ज्ञानाराधना ऐसी दो प्रकारकी है. इनका विवेचन तो ग्रंथकारने किया ही नहीं परंतु मरणके विकल्प और उसके स्वामीओका ही विवेचन किया है ऐसा करना अयोग्य हैं. प्रस्तुत विषयका त्याग करके अप्रस्तुत विवेचन करना बुद्धिमानोंको सहन नहीं होता है. इस शंकाका परिहार आचार्य करते हैं-
आश्वास
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