________________
मूलारामना
आवा
४१९
ऐसा विभाग करना व्यर्थ है. इस लिये मै एकही है मेरा कोईभी संबंधी नहीं है. मैं भी किसीका नहीं इं ऐसा विचार करना चाहिये, इस एकत्व भावनाका यह गुण है
एकत्वभावनाका अभ्यास करनेसे मुनि कामभोगम, शिष्यादिवरुप गणमें, और मुखमें आसनि. नहीं करता है. स्वेच्छासे जिन पदार्थोंका उपभोग ले सकन है ऐस पदार्चाको कामभोग कहते हैं. जने आहारक और पनिक पदार्थ, स्त्री वगैरह पदार्थ इनमें ये सुखदायक है ऐसा संकल्प लोग करते हैं परंतु मुनि एकत्वभावनाका अभ्यास करता है अतः यह राग नहीं करता है. बाह्य द्रव्योंका संबंध होनेसे जो मनमें आल्हाद होता है. उसको सुख कहते हैं, परंतु ये बाह्य पदार्थ लोभको ही उत्तरोत्तर वृद्धिंगत करते हैं. लोभसे मन बहुत व्याकुल होना है. ये भोगके पदार्थ मनमें स्वास्थ्य उत्पन्न करने में असमर्थ है, इसलिये ये पदार्थ-कामभोग भोगने योग्य नहीं है. रत्नत्रय संपत्ति ही लोकके लिये उपयोगी है. इस भोगसंपत्तीसे हमारा कुछ भी प्रयोजन सिद्ध होता नहीं है.
मेरे परिणामांसही मेरको शुभाशुभ कर्मबंध होता है. गण उसमें कारण नहीं है अत: उससे मेरा न कुछ विघडता है न सुधरता है.
शरीर भी अकिंचित्कर है वह खुद कुछ भी कर नहीं सकता. कर्मके आश्रयसे वह कार्यकारी दीखता है, बाह्य जीव और अजीव पदार्थ ये उपकार करते हैं, तथा अनुपकार करते है ऐसा उनमें संकल्प होनसे रागदपके क्रमम निमित्त बनते हैं, अन्यथा नहीं. अतः यह संकल्पही हृदय से निकालना चाहिय. शुद्ध आत्माका स्वरूप जानने में सनत प्रयत्न करना चाहिये. मेस आत्मस्वरूप असहाय है ऐसा विचार करना चाहिये इसको एकत्व भावना कहत हैं. इस भावनाक माहात्म्यस मुनि किसी में भी आसक्त नहीं होते हैं. वैराग्य बढ़नेसे वे उत्कृष्ट चारित्रका आश्रय करते हैं. इस वैराग्यसे संसारको बीजभूत जो परिग्रह उसका संपूर्ण न्याग होता है. व संपूर्ण कर्मोका नाश करनेम हेतुभूत चारित्रकी प्राप्ति होती है. यह सब एकत्वभावनाका ही गुण है. यह एकलभावना अज्ञानरूप मोहको दूर करती है. इसके प्रभावसे जिनकल्पी मुनि मोहरहित हुये हैं..
SAJAN
9
भयणीए विधम्मिजंतीय एयत्तभावणाए जहा । जिणकाप्पिदो ण मूढो खबओ वि ण मुज्झइ तधेव ॥ २०१॥