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________________ Aili अदि । शुटनो प्रसाद पनगापिलो पादयो हादि । मायावानिति जाजम्यो भवति ॥ दिगिशिनीयमालोचनायो मायात्रा विवृण्वन् द्वाभ्यां मयित्वा एक पाक्षिपति - मुलग-अण्णादि पार । गूगो प्रहादबन । अर्थ जो अपराध अन्य जनोंने दग्य हैं उतनेही गुरूके पास जाकर कोई मुनि कहता है, और अन्यसे न देखे गये अपराधोंको लिपाता है वह मायावी है ऐसा समझना चाहिए, - - दिट व अदिष्टं वा जदि ण कहेइ परमेण विणएण ॥ आयरियपायमूले तदिओ आलोयणादोसो ॥ ५७५ ।। यदि ष्टम च नालोचयति दूषणं ॥ तदात्यालोचनादोषस्तृनीयो दोषवर्धकः ॥ ६०० ।। विजयोदया --दिव अदि बा परेर्ट प्रमदृष्टं वापराधं । परमेण विणएण जदि ण कहेह प्रकृष्टेन विनयेन यदि न । कधयेत् । क. आयरियपादमूले आचार्यपादमूले । तविओ आलोयणादोसो तृतीय आलोचनादोषः ॥ मूलारा-दिई पैररिति शेषः । अर्ध-- दूसरोंके द्वारा देखे गय हो अथवा न देखे गये दो संपूर्ण अपराधोंका कथन गुरुके पास जाकर अतिशय विनयम कहना नाहिये पातु नो पनि ऐसा नहीं करता है वह मुनि आलोचनाके तीसरे दोष से लिप्स होता है ऐसा समझना चाहिये. - --- -- जह चालुयार बडो पूरदि उक्कीरमाओ चेव ।। तह कम्मादाणकरी इमा हु सल्लुद्धरणसुही ।। ।। ५७६ ॥ दोपशुद्धिरपचेतसा पुनः कल्मषैरिति कृता निधीयते ॥ यालुकासु रमिताऽवटः पुनर्वालुकाभिरभितो हि पूर्यते ।। ६०१ ॥ इति दृष्टम् ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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