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आश्वास:
मूलाराधना
सेव्यमानो यथाहारो विपाके दुःखदायकः।। अपथ्यः पथ्यशेमुष्या तधेयं शुद्धिरीरिता ॥ ५९८ ॥
इति अनुमान्यदोषः । विजयोदया-गुणाकारिओलि भुजा गुणमुपयारं करोति इति भूत । नुहन्थी यथा मुखार्थी । अपमा हारं । कीरम्भूतं पच्छा चिवागकग भोजनोत्तरकाट विककक मिश्रिा तथा रमाः । मन्टु मरणामोधी शाम्योदरणनदी अपथ्यमाहार स्वबुद्धया गुणकारीति संकररुप यदि नाम भुक्तं तथापि विषाक कटुक दवारी । वं गुवभिप्रायानुमानन प्रवृत्तो हितश्या गृहीवाश्यालोचना अनर्थाच हेति । न हि संकरपयशाहजनोऽम्पधामायः । नापथ्यस्याहारस्य पथ्यसास्ति संकल्पमात्रेण । अणुमाणिय ।।
मूलारा-गुणकारगोति गुणभुपकार करोति इति । पच्छा भोजनोत्तरकालं । तधिमा अपथ्यं पश्यभिनि संकल्प्य भुक्तमिव । गुर्यभिप्रायानुमानेन प्रवृत्तहितबुद्धया गृहीताप्यालोचना परिणामेऽनवहा । न हि संकल्पयशानुरसुनोऽन्यथाभावः ।
अर्थ – जैसा सुखकी चाहना करनेवाला कोई पुरुष भोजन के अनंतर जिसका परिणाम दुःखदायक होगा ऐसा आहार खाता है. परंतु उससे सुख न होकर दुःख ही उत्पन्न होता है वैसी यह आलोचना शुद्धि है. अपथ्य आहार भेरेका हितकर होगा ऐसी बुद्धिक आरा मनमें संकल्प कर यदि कोई पुरुष भक्षण करेगा तोभी वह परिणाममें कहीं फल देगा. वैसे गुरूके अभिप्रायका अनुमान करके अर्थात गुरु मरेको अल्प मायश्चित्त देंगे इस बुद्धिसे की गई हतकर भी आलोचना अनर्थ करनेवाली हानी है, संकल्पसे वस्तुका परिणमन भिन्न नहीं होगा. संकल्पमात्रसे अपथ्य आहार पथ्यकर नहीं होता है. इस प्रकार अनुमानित दोषका चणन होचुका,
जं होदि अण्णदिटुं तं आलोचेदि गुरुसयासम्मि || अद्दिद्वं गृहतो माथिल्लो होदि णाययो ।। ५७२ ॥ परैः सूचयते इष्टमष्टं या निगूहति ॥
महादरवफला तन मायावही पराप्यते ।। ५५५॥ विजयोदया- जपणदिई होनि यदस्य भवति अपराध जातं । आलोचदि कथयति । गुरुसयासमि गुम
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