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लाराधना
आश्वामा
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न जानति ग स्मरंत्यालोचनाकाले गुरुगा पृष्टाः संत इति व्याख्येयम् । अन्ये तु गर्न प्राप्तमतीचारं न स्मरंति नरकाल. अत्रमावाश्चेनि याचक्षत ||
__आराधनामें-रत्नत्रयमें अपराध-अतिचार होनेपर उसी क्षपामें उनका गुरुके चरण समीप कथन करना चाहिये, कालक्षेप करना योग्य नहीं है, ऐसा उपदेश आचार्य कहते है
अर्थ- कल परसों अथवा तरसों मैं दर्शन, झान और चारित्रकी शुद्धि करूंगा ऐसा जिन्होंने अपने मनमें संकल्प किया है ऐसे मुनि अपना आयुष्य कितना नष्ट हुआ यह जानते नहीं है. अर्थात् उनका शल्यसहित मरण होता है. इसी वास्ते मायाशल्य मनमें जब उत्पन्न होता है उसी समय उसको हृदयसे निकालना चाहिये, ऐसा आचार्य कहते है. रोग, शत्रु और कर्म इनकी उपेक्षा करनेसे ये दृढमूल होते हैं. पुन: उनका नाश सुखसे कर नहीं सकते. अथवा जो अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत होचुके हैं उनका स्मरण होता नहीं है. जो अतिचार हुए हैं उनके संपादन रात्रि इत्यादिक रूप कालेका स्मरण गुरूके पूछने पर शिष्योंको होना नहीं है. वे अमुक कालमें मेरे द्वारा यह अतिचार हुआ ऐसा कह नहीं सकते, क्योंकि अतिचार होकर बहुत दिन व्यतीत हो गये हैं. जैसे कालका स्मरण होता नहीं है जैसे क्षेत्र, भाव और अतिचार के कारण इनकाभी स्मरण होता नहीं, वे अतिचार स्मृतिज्ञानके अगोचर होते हैं. अर्थात् हमसे कोनसे अतिचार हुए पहभी उनके ध्यानमें नहीं रहता है. ऐसा कोई आचार्य इस गाथाका व्याख्यान करते हैं,
सशस्यमरणे को दोष इत्याशंकायामाचले
रागद्दोसाभिहदा ससल्लमरणं मरंति जे मूढा ॥ ते दुवसल्लबहुले भमति संसारकांतार ।। ५४२ ॥ रागद्वेषादिभिर्भमा ये नियन्ते सशस्यका॥
दुःखशल्याकुले भीमे भवारण्ये भ्रमन्ति ले ॥५६४ ॥ विजयोदया-रागोसामिना रागद्वेषाभ्यामभिहताः । ससल्लमरण मरति मियते । जे मूढा ये मूढास्ते संसारकांतारे भमंति ते संसाराटा भ्रमति । कीरशि? दुक्खसल्लबहुले दुःखानि शल्टा बत् दुद्धरत्वाच्छल्य इत्युच्यते। दुस्खाल्यसंकुले।
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