SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 779
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूलाराधना ७५९ सशल्यमरणे दोषमाह - मूलारा -- दुक्ख सल्लबहुले दुःखानि शल्यानीव दुरुद्धरत्यात्तानि प्रचुराणि यत्र कांतारे कंटकाव्याम् || अतिचारकी शुद्धि किये बिना मरण करनेमें क्या दोष हैं ? इस शंकाका आचार्य उत्तर देते हैं अर्थ - राग और द्वेषसे जो क्षपक पराजित होकर दोषोंकी आलोचना किये बिनाही मरण करते हैं. दुःख रूपी शल्योंसे भरे हुए इस संसार में भ्रमण करते हैं, जैसे शरीर में घुसा हुआ शल्य दुर्धर होता है जैसा राग द्वेष संयुक्त होकर जीव भी दुर्धर दुःखको हम भव में भोगते हैं. अतिचारोंकी आलोचना न करने का यह फल है. शक्योद्धरणे गुणं व्याचषे तिविह पि भावसल्लं समुद्धरिताण जो कुणदि कालं ॥ पव्वज्जादी सच्यं स होइ आराधओ मरणे ॥ ५४३ ॥ उद्देश्य कुर्वते कालं भावशल्यं त्रिघापि ये ॥ आराधनां पते ते कल्याणवितारिणी ॥ ५६५ ।। विजयोत्रया-तिहिषि विविधमपि । भावसलं भावशल्यं । समुद्भरिताण समुद्धृत्य जो कुणदि कालं या करलं करोति । कीटग्भूतं ? पञ्चशादी ज्यादिकं । सच्यं सर्वे । म दोदि स भवति । आराधओ आराधको दर्शनादीनां । मरणे भवप्रच्यये ॥ उद्धृतशल्यस्य मरणे गुणं गृणाति- मूलारा -- समुद्धरिक्षाण समुध्वत्य ॥ जो शल्यका उद्धार करता है उसको आराधना सिद्ध होती हैं ऐसा कथन - अर्थ - तीन प्रकारके भावशल्योंका स्वरूप ऊपर कहा है. इन शल्योंको हृदयसे निकालकर - अतिचारांकी आलोचना करके प्रायश्चित द्वारा जो अपने आत्माको निर्मल बनाकर मरण करते हैं उनकी आराधनाओंकी सिद्धि होती है, आमरण उन्होने दीक्षा लेकर व्रतादिकों का पालन किया था वह सब आराधनाओंकी प्राप्तिसे सफल होता हैं. आवास ४ ७५९
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy