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________________ मूलागवना आश्वासा अथैवमालोचनाक्रगं निरूप्यालोयनागुणदोपनिरूपणार्धं सप्तप्रिं गायाः कथयनि -तत्रादी तावदापदि हो । दोषान्दश दिशति तद्विपर्य यरूपत्वादुगानाम्--- मूलारा-आकपिय अनुकंपामात्मनि संपाद्यालोचना । सुदुमं सूक्ष्मस्य दोपस्यालोचना । दि; यष्ट दोषजार्स परैस्तस्यालोचना । बादरं यत्स्थूलमतिचारजातं तस्यालोचना । छ प्रच्छन्नं पृष्टा आलोपना ॥ आलोचनाका क्रम यहां तक आचार्य महाराजने कहा है. आगे 'गुण दोसा, इस प्रकरणका सविस्तर वर्णन करते हैं अर्थ--अपने विषयमें गुरूके मनमें दया उत्पन्न कर आलोचना करना यह आर्कपित दोष है. अनुमानित-गुरुके अभिप्राय उपायसे जानकर आलोचना करना. यदृष्ट---जो अपराध दूसरोंने देखे हैं उनकी ही आलोचना करना. चादर-स्थूल अतिचारकि समूहकाही कथन करना. छोटे अपराध छिपाना. सूक्ष्मसूक्ष्म अतिचार कहकर बडे दोष छिपाना. छम न देखे हुए दोषोंकी आलोचना करना. शब्दाकुलित-जिस आलोचनामें शब्द आकुलित है ऐसी आलोचना का नाम शब्दाकुलितालोचना है. अर्थात् पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक आलोचनाके समय रहुत यविगण मिलकर आलोचना करते हैं, तब उनके ध्वनिओम अपना ध्वनि भी मिलाकर दोषोंकी आलोचना करना. बहुजन---बहुजन शब्द सामान्य जनका वाचक होने पर भी प्रस्तुत प्रकरणमें गुरुजनोंके समुदायमें रूद्ध हुआ है. बहुन गुरु मिलकर जो आलोचना करते हैं उसको बहुजनालोचना कहते हैं. अन्यक्त दोष- जो अज्ञानी है ऐसे मुनिको अपने दोप कहना. तत्संबी-जो दोष स्वतः किये है ऐस ही दोष जिसके द्वारा होनुके है अर्थात जिसने अपने दोषाके समान दोष किये है उसको अपने अपराध कहना. ऐसे आलोचनांक दस दोप है. इन दोषोंका आचार्य विस्तारस वर्णन करते हैं. आकपिय इत्येतत्सूधपदं ड्याचरे.... मत्तेण व पाणेण व उवकरणेण किरियकम्मकरणेण ।। अणुकंपेऊण गणिं करेइ आलोयणं कोइ ॥ ५६३ ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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