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मूलाराषमा
श्रा
मूलारा-सर्ग अभ युक्तं । शकसेवा त्यजनं । विदुपसत्थं विद्वज्जनसंस्तुतं स्वहितत्वात । मगरपटायाहरण पताकेव पताका आराधनोच्यते । भाचिन्या मुक्तेर्जयश्रियः प्रकटनान । समये सिद्धान्ते कीर्तिता पताका तम्या हरणं ग्रहणं । शियमज व्रतयज्ञ शरीरत्यजनं । सम्बग्दर्शनादिपरिणमनं भक्तप्रत्याख्यानं । व्रतयज्ञश्च तावत्कर्तुं युक्ता । किविशिष्टासी ? शरीरणिक्यो० देहगमत्वत्यागहे.नुकत्थान । पुनः किंविशिष्टा समयपडायाहरणं । मरणे आराधना परिणनेम्तमाध्यत्वात । अन एव मा व्रत यशः समीहिमार्थसाधकं प्रतम ।
अथ-- उपयुक्त कारणोंका सवाब होनेपर शरीरका त्याग करना मरेको योग्य है और यह आत्महितका करनेवाला होनम विज्जन इसकी मशंसा करते हैं. यह शरीरका त्याग अर्थात् मलेखनाराधना आगममें जयपताका समान माना है. जैस पताका वस्त्रादिसे रची आनी है और वह जयादिकको व्यक्त करती है वैसे यह आराधना भी संसारसे मुक्तता की सूचक होती है. उपर्युक्त कारण के सद्भावमें शरीरका त्याग करना मानो हाथम आराधना पताका धारण करना है. यह भक्तप्रत्याख्यान अर्थात आहारत्याग व्रतयक्ष है. शंका-शरीरत्याग भित्र है, ज्ञानगुण भिन्न है श्रद्धा, चारित्र और तपमें परिणति ये बातें भी मिन ही हैं और आहार का त्याग करना उनसे भिन्न है और व्रत भी भिन्न है अतः भक्तप्रत्याख्यानके साथ इनकी समानाधिकरणता कैसी सिद्ध होगी? * ताव खमं मे का इस नाक्यमे शरीरनिक्खेवणं इत्यादिकोंका संबन्ध करना चाहिये ऐसा करनेसे समानाधिकरयाता सिद्ध होगी. इसका अभिप्राय यह है-जबतक उपर्युक्त कारणोंका सडाद न होगा तबतक शरीरत्याग, सम्यग्दर्शनादिरूपसे परिणमन, आहारोंका त्याग और व्रतयज्ञ करना अयोग्य होगा.
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स्थामार्णतम्य परिणामन्य गुणमाहात्म्यकशनायानरगाथा
एवं ग्नदिपरिणामो जस्त दढो होदि गिकिछदमदिस्त ।। तिव्बाए वेदणाए वाच्छिञ्जदि जीविदासा से ॥ १६१ ॥ एवं स्मृतिपरीणामो निश्चितो यस्य विद्यते॥ तीवायामपि पाधायर्या जीविताशास्य नश्यति ।। १६३ ॥
इति पर्यायसूत्रम् ॥
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