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मूलाराधना
आश्वासः
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खनाके लिए इन तीनोंकी आवश्यकता है. इन तीनोंका अभाव होनेपर रनत्रयाराधना और तपआराधनाकी सिद्धि होना दुर्लभ है. निर्यापकत्वके योग्य आचार्य जबतक देश में विद्यमान है तबतक सालखना करना चाहिए. ऋद्धिगाख, रसगारच, और सातगारव इनसे रहित आचार्य हो तो उनसे सल्लेखना की सिद्धि मुनि कर सकते है. जिनको अद्धि प्रिय है ऐसे आचार्य असंयत पुरुषको भी निर्यापक पदमें स्थापेंगे. स्वयं भी असंयमसे भययुक्त न होंगे. असंयमके कारणभूत अनुमोदनका उनसे परिहार होना असंभवनीय होता है. जो आचार्य रसप्रिय और सुखप्रिय हैं वे स्वयं क्लेश सहन करना नहीं चाहते हैं. अतः ये आराधकके देहकी शुश्रूषा कैसी करेंगे ' स्वयं मरागी आचार्य आराधको वैराग्यके भाव उत्पन्न करंग यह निश्चय नहीं है. जो आचार्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र को निरतिचारतया पालते हैं उनसे ही आराधककी सल्लेखना सधेगी जो जीवादि पदार्थोके यथार्थस्वरूप को पहिचानता है वही ज्ञान विशुद्ध समझना चाहिये. दर्शन भी सम्यग्ज्ञान का साथी होता है, रागपका अभाव होनसे चारित्रमें निर्मलता आती है, अर्थात निर्मल रत्नत्रयधारक आचार्य से ही आराधक मलखना धारण कर सकता है अन्यथा नहीं.
नाव खमं में कार्यु सरीरणिक्खेत्रणं विदुपसत्थं ॥ समयपडायाहरणं भत्तपइण्णाणियमजण्णं ॥ १६ ॥ तावन्मे देहनिक्षेपः कर्तुं युक्तो युधेहितः ॥
भक्तत्यागो मतः सूत्रे व्रतयज्ञो ध्वजग्रहः ॥ १६२ ॥ विजयोदया-ताव समं मे कार्ड । शाययुक्तं कर्म मम । किं ? मरीगणिग्राण शरीनिक्षपण शरीरयजनं । चिपमा चिजनम्तुतं आत्मादितम्यात् । समयगडागाहरणं ममयः सिद्धांतः तस्मिन् कीनिता पनाका आराधना पताकर पनाका उपमार्थः । यथा पताका बस्त्राविरचिता जयादिकं प्रकटयति । एवमियं आराधनापि भवनिर्मुक्ति प्रफटयनि । तस्या हरणं ग्रहणं । भत्तपदण्ण मनःप्रत्याख्यान नियमजणं बतयशं । ननु शरीरल्यागोऽन्यः, अन्यमानं, श्रद्धाने, तपासु परिणतिरन्थान्यदकत्यजन, अन्यानि च बतानि चस्कथं सामानाधिकरणनिदेशः ? अत्रोच्यते-प्रत्येकमभिसंबंधः कार्यः । ताप खमं मे काउं इत्यनेन शरीरनिक्खेवणे इत्यादीनां । ततोऽयमर्थः-शरीरत्यजनं, सम्यग्दर्शनाविपरि. गमनं, भक्तप्रत्याण्यानं, अतयशश्च नायक अयुक्तमिति ।
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