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________________ मूळाराधना १२२१ विजयोदया दुक्काम दुःखानां शारीराणां, आंगतुकानां स्वाभाविकानां च क्षयो भवतु । तथा कर्मणां तत्कारणभूतानां रत्नत्रय संपादनपुरःसरं भरणं, दीक्षाभिमुखो बोधिलाभका पतस्प्रार्थनीयं ताम्यत् ॥ तर्हि अतायनुष्ठायिना कि प्रार्थ्यमित्याह--- मूलारा — बोधिलामो रत्नत्रयप्राप्तिः । अत्र यथापूर्व हेतुहेतुमद्भाव भाव्यः || अर्थ - - मेरे शारीरिक दु:खों का, आगंतुक - अकस्मात् उत्पन्न होनेवाले दुःखोंका, और स्वाभाविक दुःखोका जन्मजरामरणादि दुःखों का नाश हो तथा इन दुःखोंको उत्पन्न करनेवाले असातावेदनीयादि कर्मोंका भी नाश हो. मेरेको समाधिमरणत्री अर्थात् रत्नत्रयप्राप्ति पूर्वक मरणकी प्राप्ति हो. दीक्षाधारण करनेमें प्रवृत्त करने वाली रत्नत्रय प्राप्ति हो इन बातोंकी प्रार्थना करनी चाहिये. अन्य वस्तुकी प्रार्थना करना योग्य नहीं हैं. पुरिसत्तादीणि पुणों संजमलाभो य होइ परलोए ॥ आराधयस्स णियमा तदत्थमकदे णिदाणे वि ॥ १२२६ ॥ नरत्वसंयमप्राप्ती परत्र भवतः स्वयम् ॥ निदानसंतरेणापि दगायाराधनांगिनः ।। १२६७ ।। विजयोदयापुरिसन्ताद्रीणि पुरुषावादिकं संयमलाभ भविष्यति परजन्मनि कस्य? कृतररत्नत्रयाराधनस्य निश्वयेन तदर्थम कृतेऽपि निद्राने ॥ आराधकस्य निदानं विनापि प्रेत्यपुरुपत्वादिभावमवश्यंभावि संभावति— मूलारा – अकदे अकृतेऽपि ॥ अर्थ -- जिसने रत्नत्रयकी आराधना की है उसको निदान न करनेपर भी अन्यजन्ममें अर्थात् आगे जन्ममें निश्वयसे पुरुषत्वादिककी और संयमकी प्राप्ति होती है. माणरस भंजणत्थं चिंतेदव्वो सरीरणिव्वेदो ॥ दोसा माणस तहा तहेब संसारणिवेदो । १२२७ ॥ आश्वास ६ १२२०
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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