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मूलाराधना
आश्वास
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किमुच्यते स्पिपासादयः परीषदा रति नैष दोषः । नुवादिजन्यदुःखविण्यत्वात शुषाविशद्वानां । तेन भुत्पिपासाशीतोष्ण देशमशफनाम्यादीनां परीपहवाचो युक्तिनविरुभ्यते। सीढण्हदसमसयादियाण शीतोष्णशमशकानीनां। परिस्सहाणं उरो दिभणा परीपहाणा उरो दर्त। केन सीदादिणिवारणगे शीतादीनां निषेधकान् । गंथे णियदे जइतेण ग्रंथानियतं त्यजता ।।
चेलादिग्रन्थं त्यजता दुःकृननिर्जरणोपायः परीषहसहन कृतं स्यादित्याह
मृलारा--परीसहाण सीनादिजन्यदुःग्यानां । उरो हदयं । शीतादिदुःखाइवे नि:संकोश मनः कृतमित्यर्थः । णिवार गए निवारकान् ।।
परिषह सहन करनेसे कर्म की निर्जरा होती है । पूर्वचभमें जीवने जो कर्मसंचय किया है उसकी निर्जरा करने के लिए परिषद सहन करना चाहिए ऐसा आगममें कहा है. ग्रंथ का अर्थात वनप्रावरणादिकोंका त्याग करने नाले मुनि परिवह सहन करते हैं इसका विधेचन---
अर्थ- अमेपर भी होश गरिमानननदी पशिमय है. परंतु शीत, उष्ण, भूख, ग्यास बगैरहको परीषह जय नहीं कहते हैं क्यों कि वे आत्मपरिणाम नहीं है, वे बंध, संवर, निर्जरा और मोक्षके उपाय होते नहीं. जो जो आत्मपरिणाम नहीं है वे निर्जराके हेतु नहीं है जैसे पुद्गल के रूपादिक गुण. शीत उष्णता वगैरह आत्माके परिणाम नहीं, क्षुधा, प्यास वगैरहभी आत्माके परिणाम नहीं है वे सब दुःखके कारण हैं. वे स्वयं दुःख नहीं है इसवास्ते उनको परिषह कहना योग्य नहीं है.
उत्तर-आपका कहना योग्य है. क्षुदादिकोंसे उत्पन्न होनेवाला दुःख क्षुदादिशब्दों का विषय है. इस वास्ते क्षुधा, पिपासा. शीत, उष्ण, देशमशक, नाग्न्य इत्यादिकोंको परीषह कहना अनुचित नहीं है.
इस गाथाका अभिप्राय यह है कि, शीत उष्ण इत्यादिकों को मिटाने वाला वस्त्रादि परिग्रह जिसने नियमसे छोड़ दिया है उसने शीत, उष्ण, दंशमशक बगैरह परीषहोंको छाती आमे करके शूर पुरुषके समान जीत लिया है ऐसा समझना चाहिये। देखें भादरः सर्वस्य हिंसादेःसंयमस्य मूलं परित्यक्तो भवति परिप्रहं त्यजतेत्याच
जम्हा णिगंथो सो वादादवसीददंसमसयाणे ।। सहदि य विविधा बाधा तेण सदेहे अणादरदा ।। ११७२ ।।
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