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________________ सूलारापना आभास श्रीविजयाचार्यरतु-गृहवासारखवा दीक्षिता अपि संतः । केचिद्रिययोषागृहवासगतानेव पुनरपि गृहन्तीति व्याख्यात् । हिशब्दस्य समुण्यार्थरय मिसक्रमणस्य पुणो इत्यत्रोऽनंतरमभिसंबंधात् । तथा चोक्तं विदग्ध प्रीतिवर्धन्याम--- एवं केचिद्गृहवासदोषमुक्ताश्च दीक्षिताः संतः ।। इंद्रियकवायदोषान्पुनरपि तानेव गृहन्ति || गृहवासदोषास्तु ममेदभावप्रहायशो, दुराशापिशाचीपारवयं समस्तपापललोभमहोरगातुरत्वं, जीवनोपायकृष्यादिकार्यद्वंद्वनैरतर्यप्रवृत्वायाससंहस्रसंकुल क्लिष्टता, घजीवनिकायमाणातिपातद्वारप्रविशनिवारब्रह्महत्याप्रसंधान्यतगहकिलंककश्मलत्वं, दुर्यशःपुरीयोपलेपनिमित्तत्वं, विपदावर्तसहस्रशंकातंकदौमनस्य, परपीडानुग्रहकरणपरिफर बंधसमिसदुरहंकारराक्षसक्षिप्तचेतनत्वं, स्थूले तर सचित्तचित्तद्रव्योपार्जनमहणरक्षणवर्धनव्ययकरणान्यासंगसहस्त्रजायमानमनोवाकायदौरवरध्यमसाराशुचिनवरशरणसंभयणीयाहितदुःखानात्मसु सारादिबुद्धिनिबंधाः । कंदपसर्पगरलघूर्णिसत्वं, चित्ताशाकिनीविकारभूयिष्ठत्वं, परितापनिष्ठत्वं, प्रियविप्रयोगाश निनिपातविशरास्ता, शोकानवालाकरालता, अनिष्टसंयोगदुरतविषादास्पदव, कोपपावभस्मसारकरणावं, प्रार्थिताप्राप्सिद्देतिशवजर्जरत्व, मायास्यपि रिकानिर्भरपरिरंभता, भयायःशलाकाप्रतोदनं, मात्सर्येप्यास्तेयपैशुन्यदैन्यानृतारतेयविषयलांपट्याविषकीटकोपसृष्टता, कुयोनिसहस्रमुखप्रवेशकर्मठपापबंधनियधनत्वं इत्यादयः केयलिभिः श्रुतकेयलिभिर्या कथमपि कलयितुं शक्या नु शक्या वेति ॥ . अर्थ-उपर्युक्त रष्टांतसे यह सिद्ध होता है कि कोई गृहस्थावस्थाके दोषोंसे मुक्त होकर और दीक्षा लेकर भी दिय और कषायोंके दोषोंको पुनः ग्रहण करते हैं. इस गृहस्थपनाको क्यों दुष्ट कहते हैं। इस प्रश्नका उत्सर__यह गृहवास ममत्वका आधिष्ठान अर्थात् मूल कारण है. हमेशा माया और लोम को उत्पन्न करनेवाले ऐसे जीवनोपाय इसमें जीवको करने पड़ते हैं. यह ग्रहवास कषायोंकी खान है. यह जीवोंपर पीडा और अनुग्रह भी करता है. अर्थात् गृहस्थावस्थामें रहने पर किसीको पीहा करनेका और किसी पर अनुग्रह करनेका हमेशा प्रसंग आता है. पृथवी, जल, अग्नि, हवा और वनस्पति इन स्थावरोंका इसमें हमेशा घात करना पडता है. मन वचन और शररिके द्वारा सचित्त अचित्त अनेक स्थूल और सूक्ष्म पदार्थ तथा द्रव्य प्राप्त करनेके लिये इस गृहवासमें १२९१
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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