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मूलाराधना
अर्थ-मार्थना करके आये हुए आचार्य को अर्थात् क्षपकका समाधिमरण साध्य करानेवाला निर्यापकाचार्य आगे लिखे हुए लक्षणोंसे युक्त होना चाहिये. अर्थात यह गीतार्थ जीवादि पदार्थों का वेत्ता, ज्ञानी, चारित्रमें स्थिर, क्षपक के ऊपर पूर्ण आदर रखनेवाला होना चाहिय.
संबिम्गवज्जभीरुस्स पादमूलम्मि तस्स बिहरंतो ।। जिणवयणसव्वसारस्स होदि आराधओ तादी || ४५० ॥ सविनस्याघभीतस्य पादमले व्यवस्थितः ।। अहेवागमसारस्य भवत्याराधको यतिः ।। ४११ ।।
इति परगणचर्यासूत्रम् । विजयोदया-संविग्गवजभीयस्स संसारभीरो, पापकर्मभीरोश्च तस्य गुरोः पादमूले वर्तमानो जिनवचनसर्वसारस्य भवत्याराधकः । तादी यतिः । संते सगणे, गीवत्थो, संधिग्णवज्जीम इत्येतत्सूअत्रयेण परगणे चर्यायां गुणो व्याख्यातः ॥ परमणचर्या
मूलारा-बिहरतो वर्तमानः । जिणेत्यादि जिनप्रवचनस्य सर्वस्य सारो अनिशचितं पं आराधना नस्या आराधको भवतीति संबंधः । तादी यतिः । परगणचर्या अंकत १५ सवतः ५७ ।।
अर्थ-जो संसारसे भय युक्त है, जो पापकमभीरु है और जिसको जिनागमका राव सार मालुम हुआ है ऐसे आचार्य के चरणमृलमें वह यति समाधिमरणोद्यमी होकर आराधनाकी सिद्धि करता है. " संत सगण, गीदत्थी, संविग्गावज्जभीरु " इन तीन गाथाओंसे परगणमें चर्या करना गुणयुक्त है. ऐसा सिद्ध किया है. गणर्या नामक प्रकरण समाप्त हुवा.
मार्गणानिरूपणार्थमुत्तरप्रयंधः
पंचच्छसत्तजोयणसदाणि तत्तोऽहियाणि वा गंतुं ॥ णिज्जावगमण्णेसदि समाधिकामो अणुण्णादं ।। ४.१॥