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________________ माराधना आश्वास १७७५ परियाइगमालोचिय अणुजाणित्ता दिसं महजणरस ॥ - तिविधण खमावित्ता सवालवुढाउलं गच्छं । २०३३ ।। संस्थाप्य गणिनं संघ क्षमपित्वा त्रिधाखिलं ॥ याषज्जीव वियोगार्थी दत्या शिक्षा भियंकराम ॥ २१०५॥ विजयोदया-परियाहगमालोचिय मसेर रजयारामाणिसं गणघरं। महजणस्स महाजनस्य चतुर्विधसंघस्येत्यर्थः । तिविषेण खमापिसा त्रिविधेन क्षमा ग्राहयित्वा । सबालवृयाकुलं गच्छं। मुलारा-परियाइयं रत्नत्रयातिधारपरिपाटीं । दिसं आचार्य परिस्थाप्य । महजणस्स महाजनस्य चतुर्विध संघस्येत्यर्थः। रवमावेत्ता क्षमा प्राहयित्वा । ___ अर्थ-स्नत्रयके पालन करते समय जो अतिचार लगे थे उनकी आलोचना कर संघका त्याग करने पूर्वमें अपने स्थानमें दूसरे आचार्य की स्थापना करनी चाहिये. अर्थात् चतुर्विध संघको नवीन आचार्यके स्वाधीन कर देना चाहिये. उस समय पालमुनि, बृद्धयुनि वगैरह संपूर्ण गणको क्षमाके लिये प्रार्थना करनी चाहिये. अणुसद्रिं दादूण य जावज्जीवाय बिप्पओगच्छी ॥ अम्भदिगजादहासो गीदि गणादो गुणसमग्गो । २०३४ ।। कृतार्थतां समापनो हर्षाकुलितमानसः ॥ निर्यातो गणतः सूरिगुणशीलविभूषितः ।। २१०६ ।। विजयोदया-अणुसदि दादूपय शिक्षा इत्वा गणपतगणस्य च । जायज्जीवाय विप्पओगच्छी यावज्जीव विप्रः योगार्थी 1 अध्भदिगजावहासो कृताधोऽस्मीति जातहर्षः। णीदि गगादो नियोति यतिगणात् । गुणसमग्गो संपूर्णगुणः ।। मूलारा--दादूण गणपतये गणाय च दत्वा । जात्र-जीवाय यावज्जीवं । विष्पजोगत्थी गणेन वियोगमिच्छन् । अभधियजादेहासो कृतार्थोऽस्मीति निर्भरोत्पन्नप्रीतिः | णीदि निगच्छति । अर्थ-आचार्य स्थापनाके अनंतर आचार्य और गणको भी उपदेश देना चाहिये और तदनंतर अब यावजीब मैं आपसे अलग होना चाहता हूं ऐसा कहकर गणसे प्रयाण करना चाहिये. आज मैं कृतार्थ दुआ ऐसा मानकर संपूर्ण गणयुक्त एलाचार्यका यह आचार्य त्याग करे. १७७५
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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