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________________ पूजाराधना १९४४ अर्थोपचये तृप्त्यभावमाह- महारा— कथंचि केनापि प्रकारेण । संवीएजण्ड संचयमुपेयुः । लाभातु धनप्राप्तेः ॥ अर्थ — यद्यपि किसी प्रकारसे किसी उपायसे परिग्रहका संग्रह हुआ तथापि यह आत्मा उसके प्राप्तिसे तृप्त होता नहीं. क्योंकि सदा लाभ होनेपर परिग्रहोंसे लोभ बढताही रहता है. लब्धेऽपि ॥ जब इंधणेहिं अग्गी लवणसमुद्दो नदीसहस्सेहि ॥ तह जीवस्स ण तित्ती अस्थि तिलोगे वि लडम्मि ॥ ११४३ ॥ नदीजलैरिवाम्भोविधिनैरिव पावकः ॥ लोकाभिरपि प्राने जीवो जातु तृप्यति ।। १९८२ ।। विजयोदया - जय इंधणेहिं इंधनधानि यथा वा समुद्रो न तथा परिग्रहेर्न तृप्यति जीवलोक्ये मूलारा सष्टम् । अर्थ-जैसे लकडीओसे अग्रिकी तृप्ति होती नहीं. हजारो नदिओंके जल मिलने पर भी लवणसमुद्रकी प्यास नहीं बुनती है. वैसे त्रैलोक्य की प्राप्ति होनेपर भी इस परिग्रहोंके द्वारा जीव तृप्त होता नहीं है. पडहत्यरसण तित्ती आसी य महाघणस्स लुद्धस्स ! संगेसु मुच्छिदमदी जादो सो दीहसंसारी || १९४४ ॥ महाधनसमृद्धोऽपि पदहस्ताभिधो वणिक | जातस्तृप्तिमनासाथ लुब्धधीदर्घ संसृतिः ।। ११८३ ।। विजयोदया-- परस्स पटहस्तनामधेयस्य वणिजः न मिरालीत्तथा महाधन्यस्य लुग्धस्य । परिप्र मूच्छितमतिरसी जातो दीर्घसंसारः ॥ अथ लाभेनादौ सत्यां दोषमाख्यानेन स्फुटयति- आभार ११४४
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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