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________________ मूलाराधना अर्थ-सर्व जगतके पुदल यदि सुखरूप बनकर उनको मुखी करनेके लिए उद्यमी होनेपर भी इन पुनिराजका मन उनमें लुब्ध होता नहीं अर्थात् अपने आत्मध्यानमें ही स्थिर रहता है. आश्वास सच्चित्ते साहरिदो तत्थोवेक्वदि वियत्तसगो।। सबागे र पाते जाणाए थण्डिलमुवेदि ॥ २०४९ ॥ उपेक्षते विनिक्षिप्तः सचित्तहरितादिषु॥ उपसर्गशमे भयो योग्यं स्थान मियर्ति सः॥२१२०।। विजयोदया--सम्धिते साहरिदो व्याघ्रादिभिः सचित्ते निक्षिप्तः स तत्रेवोपेक्षते त्यक्तसर्वागः। उपसमें प्रशांते यत्नेन स्थण्डिलमुपैति । व्याघ्रादिभिः प्राणि संकुलभूतले प्रक्षिपोऽसौ किं करोतीत्याह __ मूलारा--सचिने हरिचतृणादिप्राणियहुलो देशे सा हरिदो व्याघ्रादिभिनीत्वा पक्षिप्तः । तत्थ तत्रैव उवक्खदि | तिष्ठत्युपसगातं यावत् । विपतसव्वंगो त्यक्तसर्वकायः । पसते स्वयमेव प्रशभ गते ॥ ___ अर्थ-हरा तृण वगैरह प्राणिोंसे व्याप्त ऐसे भूप्रदेशमें यदि व्याघ्रादिकोंने लेजाकर फेक दिया तो भी उपसर्ग दूर होने तक ये मुनि शमभाव धारण कर शरीरमोहसे रहित होकर वहाँ ही रहते हैं. उपसर्ग दर होनेपर यत्नस स्थंडिलके तरफ आते हैं. एवं उव सग्गविधि परीसहविधि च सोधिया संतो॥ मणबयणकायगुत्तो सुणिच्छिदो णिज्जिदकसाओ ॥ २०५० ॥ परीषहोपसर्गाणामेव विषहमोद्यतः॥ मनोयाकायगुतोऽसौ निकषायो जिद्रियः ॥ २१२१ ।। विजयोदपा एवं उपसविधि एवमुपसर्गान् परिषदांश्च सहमानस्त्रिगुप्तः सुनिश्चितो निर्जितकरायः॥ मूलारा-पष्टम् ।। १७८३
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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