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गृलाराधना
आश्वासः
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महाशनिर्गमाशौचब्याध्याघ्रौव्याणि विग्रह ।। असारत्वप्रेक्षण || .. अर्थ--चमरी नामक गौके केस, गंडेका सींग, हाधीके दांत, सर्पके मस्तकका मणि आदि शब्दसे मोरका पंख, कस्तुरी वगैरह पदार्थोंमें सार अर्थात् उत्कृष्टता-पवित्रता देखी गई है परंतु इस मनुष्यदेहमें कुछ सार नहीं दीखता है.
अर्थ-चकरेका मृत, गायका दूध और गाय और बैलकी गोरोचना ये पदार्थ मवित्र है. परंतु मनुष्य देहमें कुछ भी पवित्र चीज अबलोकनेमें नहीं आयेगी. अशुचि प्रकरण समाप्त हुआ. व्याधि इत्येतच्याच प्रबंधनोत्तरंण
वाइयपित्तियसिभियरोगा तण्डा छहा समादी य॥ पिच्चं तवंति देहं अहहिदजलं वजह अग्गी ॥ १०५३ ।। कुधितसद्मनि वा कुचितैःकृले कृमिकुलैर्विविधैरभितो भृते ।। शुनि नणां सकलाशुचिमंदिरे भवति किंचन नात्र कलेवरे ॥ १०८४॥
इति अशौच ।। विजयोदया-घाइयापत्तियसिभियरोगा दोषत्रवप्रभचा व्याधयः । तृष्णाक्षुधाश्रम इत्यादयश्च । वह नित्य सपंति उचलितोऽग्निर्जलमिव चुल्ल्युपरिस्थितभाजनगतं ॥
देहव्याधिनिरूपणार्थ गाथात्रयमाह
मुलारा-वादिय इति-वादिय पित्तिय सेंभिय वातादिभिः पृथङ् मित्रैः समस्तैश्च जनिता बरादयो च्याधयः। समादीय श्रमादयश्च । तति तापयति । अहिदजलं चुहल्युपरिस्थापितभाजनगतं तोयं ॥
अर्थ--बातजन्य रोग, पित्तके रोग और कफसे होनेवाले रोग, प्यास भूक, और श्रम इत्यादिकोंसे अपिके द्वारा जैसा जल तप जाता है वैसा यह देह संतस होता है.
जदि रोगा एक्कस्मि चेव अपिछम्मि होति छपणउदी ॥ सव्वम्मि दाई देहे होदव्वं कदिहिं रोगेहि ॥ १०५४ ।।