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________________ मूलाराधना आश्वास १८४१ जिन्होंने अपनी आत्मासे कर्मरूपी धूल अलग की है, जिनके गुणोंका वर्णन गणधरादिक विद्वन्मडली करती है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी त्रैलोक्र के द्वारा वंदनीय है. णिव्वावइत्तु संसारमहरिंग परमणिन्बुदिजलेण ॥ णिब्यादि सभावस्थो गदजाइजरामरणरोगो ॥ २१४४ ॥ जन्ममृत्यजरारोगशोकाकादिव्याधयः ॥ विध्याताः सकलास्तेषां निर्वाणशरवारिभिः ॥ २२२४ ।। चिजयोदया-णिव्यावसु क्षयमुपनीय संसारमहानि परमनियंतिजलन तृप्यति स्वरूपस्थो यिनष्टजातिजरामरणरोगः । मूलारा--णियावहत्तु विध्याय । परमणिव्वुदि परमानंदमयी मुक्तिः । णियादि उदितोदितसुखो भवति ।। अर्थ- इन सिद्ध परमेष्ठीसोने संसाररूपी महाग्निको अनंतमुखरूप जलसे बुझाया है. और वे अपने स्वरूपमें ही हमेशा तृप्त रहते हैं. जन्म, जरा, मरणरूपी रोगोंका उन्होने नाश कर दिया है. जावं तु किंचि लोए सारीरं माणसं च सुहदुक्खं ॥ तं सज्वं णिजिणं अमेसदो तस्स सिद्धस्स ॥ २१४५ ॥ शारीरं मानसं सौख्यं वियते यज्जगत्त्रये ॥ तयोगामाचतस्तेषां न मनागपि जायते ।। २२२५ ।। विजयोदया-जावं तु किंचि लोए यावत् किंचिल्लोके शारीरं मामसं या यत्सुखं दुःख च तत्संघ निजी निरवशेष प्रकारका निरासार्थमशेषग्रहणं । सायोपाधिकसुखदुःस्वप्रक्षयमाला गति मूलारा--सुहदु स्थितमिति शेपः । णिजियो नष्टम् । असेसदो सर्वप्रकारतः। प्रकारका निरासार्थमशेषग्रहणम् ॥ 220
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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