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आश्वास
मूलाराधना
आई... इस उठा लेगा, रखना, छोडना, खहे होना, बैठना, शयन करना इत्यादि समस्त कार्य करते समय जिन्होंने मादका त्याग किया है ऐसे श्रेष्ठ दयाके धारक साधुजनोंस अहिंसा पूर्णतासे पाली जाती है.
अर्थ-जिसने आरंभका त्याग किया है, जो प्रासुक आहार लेता है. ज्ञानाभ्यास करने में जिसने अपने IPL चित्तको स्थिर किया है, तीन गुमिओंका धारक ऐसे मुनिराजमें यह आईसा पूर्णताको प्राप्त होती है.
आरंभे जीववहो अप्पासुगसेवणे य अगुमोदो ॥ आरंभादीसु मणो गारदीए विणा चरइ ।। ८२० ॥
आरंभबिधे जन्तुरमासुकनिषेत्रणे ।।
प्रवर्नत नुमाये च शम्दम्जामरति विना ।। ८२९ ।। विजयोदया-पृशिव्यादिविषयो व्यापार आरंभः । तस्मिन्सति तदाश्रयप्राण्युपद्रव इति जीवनधो भवति । उद्गमादिदोषोपहृतस्य थाहारस्य भोजन जीयनिकायधधानुमोदो भवति । शानरतिमंतरेण आरंभे कषाये च मनःप्रवर्तते ।
___ अर्थ--पृथिवी, जल, इत्यादिकके आश्रयसे आरम होता है. अर्थात् जमीन खोदना, पानी सींचना. वृक्ष तोहना इत्यादि क्रियाओंको आरंभ कहते हैं. ऐसा आरंभ करनेसे उनके आश्रयसे रहनेवाले जीवोंका घात होता है. उद्गमादिदोपमाहित आहार लेनर, जीवनिकायके के लिये सम्मति दी है ऐसा समझा जाता है, और ज्ञानाभ्यास में यदि प्रेम न हो तो मन आरंभ और कषायमें प्रवृत्त होता है.
तम्हा इहपरलोए दुक्खाणि सदा अणिच्छमाणेण ॥ उवओगो कायव्वो जीवदयाए सदा मुणिणो ॥ ८२१ ।। मुनिनानिच्छता लोके दुःखानि धृतये सदा॥
उपयोगो विधातव्यो जीवत्राणवते परः ।। ८३० ।। विजयोत्याः---नमा साम् । आरंभो भवता त्याज्यः, मासुकभोजनं भोज्य, शाने अरवि अपाकार्या इति क्षपशिक्षा । आईसा जीवदया तस्याः फलमुपवर्शयति-तला इत्यमया उभषलोकगतदुःसपरिहारमिच्छता दयाभाषना का इति कथयति ।