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________________ लारामा आश्वासः जीको शायदहुलो संतो जीवाण घायणं कुणइ ॥ सो जीववह परिहरदु सया जो णिज्जियकसाओ ॥ ८१७ ।। कषायकलुषो यस्माज्जीवानां कुरुते वधम् ।। निःकषायो यतिस्तस्मादहिंसारक्षणक्षमः ।। ८२६ ।। बिजयोदया-हिंसा कषायैः प्रव/ते, ततोऽहिसामिच्छता पते परिहर्तध्या इत्युत्तरसूत्रार्थम् । हिंसा कषायसे उत्पन्न होती है हिंसाको चाहने वालोंको अपायोंका त्याग करना चाहिये ऐसा आगेके गाथामें लिखते हैं. अर्थ—जीव जय कपायके वश होता है तब वह जीवोंका मारता है, परंतु जिसने कषाय जीते हैं वही जीववधका परिहार करता है. अर्थात् आहिंसाका वही पालन करता है. प्रमाद अर्थात् कषाय हिंसामें जीवको प्रवृत्त | करने हैं इसलिये आहंसात्रतको चाहनेवाले उसको दूरसे ही त्यागे.. आदाणे णिक्खेवे बोसरणे ठाणगमणसयणेसु ॥ सव्वत्थ अप्पमच्चो दयावरो होटु हु अहिंसो ॥ ८१८ ॥ काएसु णिरारंभे फासुगमोजिम्मि णाणहिदयम्मि । मणबयणकायगुत्तिम्मि होइ सयला अहिंसा हु ॥ ८१९ ॥ शयनासननिक्षेपग्रहचंक्रमणादिषु॥ सर्वत्राप्यममत्तस्थ जीवन्त्राणं व्रतं यतेः ॥ ८२७ ।। विवेकनियताचारप्रासुकाहारसेविनि ॥ मनोवाक्कायगुप्तेऽस्ति दयात्रतमन्त्रंडितम् ।। ८२८ ।। विजयोश्या--प्रमादो हिसायाः प्रवर्तकः स परित्यज्योऽहिसावतार्थिना रति गाथार्थः ।। विजयोक्या-परित्यक्तारभस्य प्रासुकमोजिनो मानभावनावहिते मनसि गुप्तिप्रयोपेते संपूर्णा भवत्यहिंसा इति सूत्रार्थः॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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