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मूलाराधना
आश्वासः
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आतापनयोग धारण करते समय मुयकिरणमे, म्बेदमे बदद कप होनेपर भी मन संक्लिष्ट न होने देना चाहिये. और उनका प्रतीकार करनेवाले वस्तुओंमें आदर भी नहीं करे.
जहां लोगोंका आना जाना नहीं है ऐसे एकान्तस्थान में प्रवेश किया हो और वहां पिशाच अथवा दुष्ट व्याघ्रादि पशुओका उपद्रव होनेपर भी मनमें भयभीत न होना चाहिये और अरतिपरीपह सहन करना चाहिये. प्रायश्चित्तका आचरण करते समय में भी गुरुने मेरे अलाचलका विचार न करके बडा प्रायश्चित्त दिया है ऐसा विचार कर मनमें क्रोध न उपजावें. प्रायश्चित्त करते समयमें होनेवाले क्लेशको सहकर संक्लेश परिणाम न होने देवें
शानविनयके कार्य में प्रवृत्त हुये मेरे को ही क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि करनेके लिये गुरु नियुक्त करते हैं. दूसरों को इस कार्य में नहीं लगाते ऐसा विचार कर कोप नहीं करना चाहिये और ज्ञानविनयके कार्यमें श्रम दुआ तो भी सहन करना चाहिये.
दर्शनविनय में तत्पर रहनेवाले मुनिवर्यने सन्मार्गसे भ्रष्ट हुए व्यक्तीको सन्मार्गमे पुनः स्थिर करना चाहिये, ऐसे कार्यमें महान परिश्रम करने पड़ने पर भी खेद न मानना चाहिये. स्वतःका चित्त वक्रविचारयुक्त हुआ हो तो उसको भी सीधे मार्गपर लाना वडा दुष्कर कार्य है तो अन्य व्यक्तिको सन्मार्गमें स्थिर रखना क्या सुलम है? ऐसा मनमें विचार न करना चाहिये. अर्थात् स्थिरीकरणकार्यमें होनेवाले परिश्रमको सहन करना अपना कर्तव्य समझना चाहिये.
चारित्रविनयमें सदा ही तत्पर रहकर ईर्यादिसमितियों पालनी चाहिये. ये समितियां बड़ी दुष्कर हैं. जगमें सर्वत्र जीव भरे हैं अतः जीवहिंसाका कैसे परिहार हो सकेगा ? प्रत्येक पाव रखते समय अच्छी तरहसे देख माल करने पर भी जीवोंका दर्शन और उनका परिहार होना अशक्य है. इससे तो इष्टस्थान पर जाना ही न होगा, इयर्यासमितीसे चलते समय सूर्यकी उष्णता, कंटकादिकसे बाधायें होती हैं. ऐसे विचार मनमें लाकर संक्शपरिणाम नहीं बनाना चाहिये.
जैसे दुष्टपुरुषमें कृतज्ञता गुण पाना दुर्लभ है वैसे ही नउ प्रकारसे विशुद्ध आहार पाना कठिन है. ऐसा मनमें कभी भी विचार न करे. यह सब चारित्रविनय है.
मैने तपोधिनय धारण किया है, अनशनादिक सप फेरनसे मैं हमेशा तत्पर रहता , अप्रासुक पानी ।
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