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पानस तथा अशुद्ध भिक्षा ग्रहण करनेसे जो पाप उत्पन्न होता है उसको. मेरा तप भस्म कर डालेगा ऐसा मनमें संकल्प नहीं करना चाहिये.
वारचार ऊठना, गुरुओंके पीछे गमन करना, उनकी आज्ञा शिरोधारण करना, उपकरणाको सोधना पोछना' वगैरे उपचारविनय है, ये कार्य दररोज करनकी यह आपत् व्यर्थ ही पीछे लगी है, ऐसा मनमें विचार न करें, बड़े आनन्दम उपचारबिनयका पालन करें,
तपश्चरणमें श्रद्धा रखना यह भी तपोविनय है. तपश्चरणके द्वारा आरमापर उपकार होता है यह अपने बुद्धिस जानकर तपके उपर श्रद्धा करनी चाहिये. तपश्चरणसे नवीन कर्मका संवर होता है. और पूर्वकालमें बंधा हुआ कर्म निर्जीर्ण होकर आत्मासे छूट जाता है. तप जीवोंको इंद्रपदवी, चक्रवर्तिपद वगैरे लोकपूज्य पद अर्पण करतर है. उत्कृष्ट तपके अलाभसे ही जीवको संसारसमुद्र में जन्ममरण के आवर्तमें घूमना पडता है. दुःखोंसे भरे हुए इस भवसमुद्र में तपके अभावसे ही मैंने भ्रमण किया है और करूंगा. ऐसा विचार करके तपमें येम करना चाहिये.
सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, बंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ऐसी छह आवश्यक क्रियायें हैं. ये क्रियायें शास्त्रमें जंसी कही हैं वैसा उनका आचरण करना चाहिये, उसमें न्यूनता न होवें. यदि होगी तो तपोविनयमें न्यूनता आवेगी.
'ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावासयंति योधव्या' ऐसी आवश्यक शब्दकी निरुक्ति है, व्याधि-रोग अशक्तपना इत्यादि विकार जिसमें है ऐसे व्यक्तिको अवश कहते हैं. ऐसे व्यक्तीको जो क्रियायें करना योग्य है उनको आवश्यक कहते हैं. जैसे 'आशु गच्छतीत्यश्वः' अर्थात् जो शीघ्र दौडता है उसको अश्व कहते हैं. अर्थात् व्याघ्रादिक कोई भी प्राणी जो शीघ्र दौड सकते हैं वे सभी अश्वशब्दसे संगृहीत होते हैं, परंतु अश्वशब्द प्रसिद्धिक वश होकर घोडा इस अर्थमें ही रूट है. बैंसें अवश्य करने योग्य जो कोई भी कार्य है वह आवश्यक शब्दसे कहा जाना चाहिये जैसे - लौटना, करवट बदलना, किसीको बुलाना वगैरह कर्तव्य अवश्य करने पड़ते हैं परंतु आवश्यक शब्द यहां सामायिकादि क्रियाओं में ही प्रसिद्ध है.
___अधत्रा आवासक ऐसा शब्द मानकर 'आवासयन्ति रत्नत्रयमात्मनि इति आवासकाः' एमी भी निकि करते हैं. अर्थात जो आन्मामें रत्नत्रयका निवास करते हैं उनको आवासक कहते हैं. सामायिक, चतुर्विशनिस्तय,
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