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________________ मूचाराधना आश्चम ८२७ तदुभयं व्याख्यातुं गाथाद्वयमाह मलारा--सायजसंकिलिछो सपाषरुक्लेशाविष्टः । वानं मम पिंगलं कि नोत्पद्यते, चारित्रं वा संपूर्ण, शरीरं रा किमिदं ममाविलं तपोयोगाक्षमीमत्यादिचियावामात्रात्मक लाशयबरध्दार्थ सावनाविशरणम् । गुण स्वम्यक्त्वादीन् । ददं विरं । दुग्गदिमयबंधणं दुर्गतिपु नारकत्वतियककुमानुषत्वकुदेवत्वभव भ्रमणेषु भयं दुःखात्रा सो । बध्यसे जीवन संवद्धं क्रियते येन तत्पापकर्म । उक्तं च स्विरत्वं नयते पूर्व संसारासुखकारणम् । ... नवं संचिनुवे पापं संक्लिष्टः क्षिपते गुणम् ।। परिणाम और पाप बंधका वर्णन अर्थ-- सावध संक्लेश दो प्रकारका है. पापसे युक्त संक्लेश, और केवल संक्लश. मेरेको निर्मलज्ञानको माप्ति क्यों नहीं होती है ? संपूर्ण चारित्र क्यों नहीं प्राप्त होता है ? मेरा यह शरीर क्यों इतना दुर्बल है, क्यों उससे तप और योगका कष्ट नहीं सहा जाता है ? इस प्रकारके विचार को संक्लेश नाम है इस संक्लेशको भिन्न दिखानेके लिये सावध यह विशेषण संक्लेशके पीछे दिया है. जिससे फक्त मनको पीडा होती हैं ऐस पापयुक्त संक्लेश परिणामोंसे सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन गुणोंका नाश होता है, नवीन पापबंध होता है और पूर्व पापकर्मों में वृद्धि होती है. क्यों कि कषायपरिणामोंसे स्थितिबंध होता है. हजारों विचित्र वेदनायें जिसमें होती है ऐसी नारकादिक अवस्थाओंका सावध संक्लिष्ट परिणाम कारण है. जो नवीन अशुभकर्म आता है वह इस पापयुक्त परिणामोंसे आस्मामें स्थिर हो जाता है. पडिसेवित्ता कोई एच्छत्तात्रेण उज्झमाणमणो ॥ संवेगजणिदकरणो देसं घाएज्ज सर्व वा ॥ ६२५ ॥ कृत्वापि कल्मषं कश्चित्पश्चात्तापकृशानुना ।। दयमानयना देशं सर्व वा हन्ति निश्चितम् ॥ ६१८॥ विजयोदया-पडिसेबित्ता कोई कश्चित्कृतासंयमाधिसेयनोऽपि । पन्छयायेण उज्झमाणमपो पश्चतापेन दह सर्व वा हस्ति निश्चितम् ।। ६४ लामो पालापन वः ।
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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