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________________ आवास: मूलाराधना त्रिविमर्गणासहायमाघ । कमिसंबंधमाघबसमा 'मत्यानेन योग 'इति । कचिस्यानपचनः यथा 'योगस्थित ' इति । शहापं परिगृहीतः । सप्तो पाहपरिकर करोतीति यावत् । रागद्वेषमिथ्याश्यासंश्लिष्ट अर्थपाथारम्यस्पशि प्रातिनिवृत्त विषयांतरसंचारं हार मानमि सध्यभामा रितसमानमाको नमितास्तुसमापन ध्यात न ममते इति भाषः । तो ततः पराजिलकरपो पस्या करणशम्या मंतःकरणे मगास वर्तते ततोऽयमर्थः । वशीकृतचित्तोर मरणे भवपर्यायनाशवेलायो । साणसत्यो ध्यानस्यैकाग्रचिन्तानिरोधस्य । ध्यानशब्दोऽत्र प्रशस्तभ्यामविषये प्राहोमा शुभयोनारकतिर्यस्यतिनिर्धेतनप्रषणयों । योगे परिकणि सदात्मनः प्रवृत्सत्वात् अयत्नसाध्यता | धर्मशुक्लयोनिबेर्तने समत्थो शक्तः मधिस्संति भविष्यामीति ॥ . यो शकिचकीर्पति स तत्परिफर्मणि प्राक् प्रयतते । यथा रिपूजिघांसुस्तद्धननक्रिपयोग्यायामशिक्षायामिति दर्शयित्वा इदानी हेतोः पक्षधर्मत्ययोजनायाह-- मूलास-इय एवं । सामण जोदितमरणादिपु समानस्य भावस्तत् समचरितव, श्रामण्वं वा चारित्रमित्यर्थः । जोगपरियम्म सधानपरिकरं तथा घोक्तं संगत्यागः कपायाणां निमहो प्रतधारणं || मनोऽक्षाणां जयश्चति सामग्री ध्यानजन्मनः ।। सिढकरणो स्ववशीकृतमनाः । करणं सत्रान्त:करणम् । स्वषशीकृतचित्तेन्द्रिय इति वा मानम् । उमाणसमस्यो धर्मशुक्लध्यानसमर्थः ॥ यही आशय आगेकी गाथामें आचार्य स्पष्ट करते है हिंदी अर्थ-जीवित, मरण, लाभ, अलाभ, शत्रु, मित्र, सुख, दुःख इन चीजोंमें रागद्वेष रहित होना इसको समता कहते हैं. यह समता पानाभ्यास करने में सहायक होती हैं. जो ऐसी समता हमेशा धारण करते हैं, जिन्होंने मन और इंद्रियों को अपने आधीन रक्खा है. अर्थात जो जितेंद्रिय और जितचित्त हैं वे साधु मरणसमयमें दुर्गति अर्थात् नरक तिर्यग्गतिको दूर करनेवाले ऐसे धर्म व शुक्ल, ध्यान करने में समर्थ होंगे. विशेषार्थ-जीवित, मरण, लाभ, अलाम इत्यादिकोंमें जो आत्मा रागद्वेष रहित है उसको समान कहते
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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