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मूलाराधना
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मोहका समूल नाश कर जिन्होने वीतरागमाय चारित्रको प्राप्त किया है, वीयन्तिराय कर्मके क्षयस अनंतवीर्यका लाभ जिनको हुआ है, आसन्न भव्यों का उद्धार करनेके लिये जिन्होंने प्रतिज्ञा धारण की है, आठ महाप्रातिहार्य और चौतिस विशेष अतिशयोंकी जिनको प्राप्ति हुई है वे अरहंत हैं. मिध्यात्व अविरति, प्रमाद कपाय और योग इन परिणामों से बद्ध हुए आठ कर्मोंका जिन्होंने नाश किया है, जो जरा और भरणसे परे हैं, जिनको किसी प्रकारकी राधा नहीं है, जिनका सुख अनुपम और अनंत है, जिनका ज्ञानरूपी शरीर अतिशय उज्ज्वल और आवरणरहित हैं. जो पुरुषाकार हैं, और परमात्मपदको धारण करते हैं, ये सिद्धपरमेष्टि हैं. वैयावृत्य से अर्हत् और सिद्धों के ऊपर भक्ति होती है. गुरुभक्ति-गुरुशब्दसे यहां आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठीका ग्रहण होता है. आचार्यभक्ति, उपाध्यायभक्ति और साधुभक्ति ये भक्ति करनेका अदादिकांस कहा हुआ वैयावृत्य करने से मिलता है. और वैयावृत्य करने से धर्मपर निर्मल भक्ति उत्पन्न होती है. रत्नत्रयधारक मुनिओ पर उपकार करनेसे, उनका आदर करनेसे ही उनके ऊपर भक्ति करने का श्रेय मिलता है. वैयावृत्य तप अद्देदादि पंच परमेष्ठि में भक्ति उत्पन्न करता है ऐसा इस गाथाका अभिप्राय हैं.
इदानीं तस्या माहात्म्यं स्तौति
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संवेगजणियकरणा णिरसल्ला मंदरुव णिक्कंपा ॥
जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भयं णत्थि संसारे ॥ ३१८ ॥ अद्भक्तिः परा यस्य विभीते भवतो न सः येनावगाहिता गंगा स किं नश्यति वहितः ॥ २९७ ॥ संसार भीरुतोत्पन्ना निःशल्या मंदराचला ||
जिभक्ता यस्य नास्ति तस्य भवाद्भयम् ॥ ३१८ ॥
विजयोदया संवेगजणिकरणा संसारभीरुतोत्पादा | कणादः सामान्यवचनोऽपि उत्पत्तिकियावृतिरब गृहीतः । णिरुखला मिथ्यात्सेन, माश्रया, निशनेन रहिता । मंद मंदर निचला । जस्म दहा जिभक्ती यस्य जिने भक्तिद्वाण तस्स भयमन्धि संखारे तस्य भयं नास्ति संसारात् । निशब्देनापाईदादयः सर्व पवोच्यते । कर्मकदेशानां च जयात् श्रभोऽपि कर्माण्यमभवति इति जिनशध्देनोच्यते । यामादिकमनुदिन वृस्तत्कथयति ।
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