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मूलाराधना
आश्वासः
संवेगजणियकरणा हत्यनेन संसारभयनिराकरणोपायभूता जिनभक्तिरिति प्रात्या प्रवृत्तेति यावत् । वैनयिकमिथ्यादृष्टे सबंध भक्तिः प्रवर्तते इति तस्विरासाय गिरसल्ला इत्युच्यते । मंदरुच णिकंपात्यनेन सर्वकालवृत्तिताख्याता । सासादन सम्यग्रजीताज्यल्पकाला न संसारानिस्सारयतीति ।।
जिनमक्तिमाहात्म्यमभिष्टौति
भूलारा-मवेगजणिदकरण्या संसारभीरुतया न द्रव्यालामादिना कृतोत्पादाकरणशब्दो हात्रोत्पत्त्यर्थः । णिस्सला चियावयातिलानमायिक विचारः सर्वत्र भक्तिः प्रवर्तते इति तनिरासाय इदं । मंदरीब णिकपा सर्वकालवर्तिनी न सासादनसम्यग्दृष्टिवल्पकाला । दढा अभेदया। जिणभत्ती जिनशब्देनात्र पंचाप्य दादय उच्यन्ते । कर्मगामेकदेशेन साकल्येन र जयात् । तथा धमोऽपि संसारे संसारान् । जिनादिभक्त्या हि सुदेवत्वसुमानुषत्वलक्षणे सुखानु बंधिन्येव भवे भ्राम्यति । उक्त च ।
संसारभीरतोपना निःशल्या मंदरापला ।
जिनभक्तिर्टटा यस्य नास्ति तस्य भवाद्यम् ।। भक्तिके माहात्म्यका आचार्य कथन करते हैं
अर्थ--संसार से भय उत्पन्न करनेवाली, माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीन शल्योंसे रहित, मंदर । पर्वतके समान निश्चल एसी जिनमें जिसकी दृढ़ भक्ति है उस मुनिको संसारमे भय नहीं रहता है. यहां जिनशद मे पंच परमेष्ठिओंका ग्रहण होता है. जैस अर्हन्त और सिद्ध परमेष्ठिओंने घातिकर्मका नाश किया है वैसे आचार्य, उपाध्याय और साधुपरमेष्टिाने घातिकर्मोंका एकदेशसे नाश किया है इसलिये उनको भी जिन कहते हैं. धर्म भी कर्मोंका पराभव करता है अत: उसको भी जिन कह सकते हैं. द्रव्यलाभादिककी अपेक्षा न करके की हुई जिनमक्ति कर्मनाश करती है. यह मक्ति संसारभय दूर करनेवाली है. चैनयिक मिथ्यादृष्टीकी सर्वत्र भक्ति रहती है, उसका निरसन करनेके लिये जिनभक्ति को णिस्सल्ला' यह विशेषण दिया है. 'मंदरुव्वणिकंपा यह विशेषण सर्वकाल जिन भाक्त रहती है, सासादन सम्यग्राष्टिक समान वह अल्प कालिक नहीं है ऐसा अभिप्राय व्यक्त करता है. सासादन सम्पष्टिकी भक्ति अल्पकालही रहती है अतः उसमें संसार नाश करनेका मामध्ये नहीं है,
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