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लाराधना
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कुतश्चिन्निमित्ताद्विच्छिन्नानां दर्शनादीनां संधान वैवावृत्तपेन क्रियते इत्यावेत्यति । मूलारा–ने यायकारका |
अर्थ--किसी कारणाने यदिग्दर्शन और नारित्र नप और गंयम दाम दिया होना बनान्य के हरा पुन: जुड़ जाते हैं. इस लिए यावत्य करनेवाले व्यक्तीने अपने को और जिसका वैयावृत्य किया गया है उसको मोक्षमार्ग में रत्नत्रयम स्थापन किया है ऐसा समझना चाहिये. इस गाथास 'संधान' इस सूत्रका व्याख्यान हुआ है.
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तय इत्येतद्याख्यातुमाह---
वेज्जाचच्चकरो पुण अणुत्तरं तवसमाधिमारूढो ।। पफ्फोडितो विहरदि बहुभवबाधाकरं कम्मं ।। ३२१ ॥ वैयायत्यं तपोन्सस्थं कुर्वतानुत्तरं मदा ||
वेदनाश्चापदाधारा भियंते कर्मभूधराः ।। ३२१॥ विजयोदया-वेजावच्नकरो पुण ययावृत्त्याज्ये तपसि समाधिमेकाग्रतामुपाश्रितः । पक्कोडिनो विहरदि विधूनयन्विहरनि । बहुभवयाधाकर कम्मं बहुभवेषु वाधाः संपादयत्कर्म ।
वैयावृत्यकृत्यं तपोगुण ब्याचष्टेमूलाग-तवसमाधि तपसि वैद्यावृत्याये समाधिमेकाग्रताम् ।
अर्थ-यावृत्य करनेवाले मुनि यायन्य नामकं तपमें एकाग्र होकर अनेक माम बाधा उत्पन्न करन| बालं कर्मका नाश करते हुए उन्नत्रयमें बिहार करते है.
जिणसिद्धसाहुधम्मा अणागदातीदवट्टमाणगदा ॥ तिविहेण सुध्दमादणा सव्वे अभिपूइया होति ।। ३२२ ॥