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मूलारापना
भावाम:
इदियकसयसण्णागारवगुरुया सभाषदो सव्वे ॥ संसग्गिलद्धपनरस्स ते उदीरंति अचिरेण || १०९४ ।। कपायन्द्रियसंज्ञाभिर्गारवर्गुकाःसदा ।।
सर्व स्वभावतः संगादुद्भवन्त्यचिरेण ते ॥ ११२९ ॥ बिजयोदया-इंदियकसायसणागारवगुगका इंद्रियः, कषायः, संज्ञाभिराहारभयमैथुनपरिग्रहषिपयाभिः कदिरससातगीरबैश्च गुरुकाः । सभाबत एव सर्वे प्राणभृतः संसर्गलचपसरस्थ अतीव अशुभपरिणामा अचिरायोपद्यन्ते ।
मूलारा-सव्ये सर्व प्राणिनः । इंद्रियादिभिश्चतुर्भिः स्वभावतो गुरुका महांतः संति । हे इंद्रियादयोऽशुभ परिणामचतुष्टयं । उदीरेंति उदीर्यन्ते स्त्री संगतिलब्धप्रसरस्स शीघ्रं समुद्भबतीत्यर्थः ।।
अर्थ--प्रायः प्राणिों में स्वभावसे ही इंद्रिया, कपाय, संज्ञा और गारव उत्कट रहते हैं. नियोंका संसर्ग होनेसे पुरुष स्वच्छंदी बनता है तब इंद्रियादिक उच्छृखल हो जाते हैं. जिससे शीघही अत्यंत' अशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं. संज्ञाके आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा. और परिग्रहसंज्ञा ऐसे चार भेद हैं. "आहारकी उत्कट अभिलाषा होना, भीति उत्पन्न होना, मैथुनकी तीय इच्छा रहना और परिग्रहों में अभिलाष उत्पन होना ऐसा चार संज्ञाओंका क्रमशः अर्थ है. ऋद्धिगारव, रसमारय और सातगारख ऐसे गारवके तीन भेद हैं. इनका वर्णन पीछे गया है.
मादं सुदं च भगिणीमेगते अल्लियंतगस्स मणो ।। युब्भइ गररस सहसा किं पुण सेसासु महिलासु ॥ १०२५ ॥ मातृस्वरसुताः पुंस एकाले श्रयतो मनः॥ शीघ्र शोमं बजत्येव किं पुनः शेषयोषितः ।। ११३० ॥
जोया