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अर्थ-एक गांवम सर गांवको व्यापार करन के लिय जानवाले व्यापारी लोगोंक लिये निमीण किये घर बगेर स्थानाम मोक्षपक लिय गलर की याचना करते हैं और भी जो मुनि के लिय योग्य स्थान में उसमें संस्तरकी रचना कर सकते हैं. उरफ गतिकाओं की पाप्ति नहीं होगी तो चांसके दल बट्ट और आच्छादन बनवाकर वसतिगरि पाना चाहेगा. वनिकाके सिवाय धमोपदेशके लिये सभामंडपादिक भी बनवाने चाहिय. इतने विवेचन का अभिप्राय यह है कि जिस में अवयम अधिक उत्पन्न होगा ऐसी वमतिकाओंका त्याग करना चाहिय. संयमसाधक बसतिकाआके विकल्पका वर्णन भी इससे सिद्ध होता है. इस प्रकार वसतिकाका वर्णन हुआ. एवंभूनायां यसती संस्तर इत्थम्भून इत्याए
पुढवीसिलामओ वा फलयमओ तणमओ य संथारो । होदि समाधिणिमित्तं उत्तरसिर अहव पुबसिरो ।। ६४० ।। उत्तराशाशिराः क्षोणीशिलाकाष्ठतृणात्मकः ।।
संस्तरी विधिना कार्यः पूर्वाशामस्तकोऽधवा ।। ६६५ ।। विजयोश्या-पुढवीसंथारो भवति । सिलामओ वा शिलामयो वा । फलकमो फलकायोवावा तणमओ बा समायोचा। ममाधिणिमित्त समाश्यर्थ । उत्तरसिरमथ पुव्यसिर पूर्वोत्तमांग रत्तोतमांगो पा संस्तत कार्यः । प्राची दिषभ्युदयिक पशस्ता । अथवोत्तरादिक स्वयंप्रमाधुत्तरदिग्गततीर्थकाभर युदशेन ।
अब प्रागुक्तलनणायां योग्यवसती भाराधकस्य समाध्यंगत्या संस्तर गाथासप्त केन निरूपविध्यन्नूर्य तदाअनुरो वक्तुमिदमाह
मूलारा-उत्तरसिरे इत्यादि उत्तरा हि दिक् स्वयंप्रभाधुत्तरदिगततीर्थ करमरपुरेशेन शुभकार्य चागमे प्रशम्ता । लोके पुनः आभ्युदयिकेषु कार्य पूर्वा दिक प्रशस्यते सूर्याश्रयत्वात् । अत उतरशिरा: पूर्वशिरा वा पकाय समाश्यर्थ पृथिव्यादिमयः संस्तरः कर्तव्य इति तात्पर्यम् ।।
इस प्रकारकी वसतिकामें संस्तर कैसा होना चाहिये इसका वर्णनअर्थ-संस्तरके पृथिवी संस्तर, शिलामयसंस्तर, फलकमयसंस्तर और तृणमय संस्तर ऐसे चार भेद
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