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________________ मूलाराधना ३२२ निंदा और गर्दा करके मनका निग्रह करता है और उसको लज्जित करता है उसको ही श्रामण्यकी सिद्धि होती है. विशेषार्थ -- वीणप्पतं इस शब्दका अर्थ इसप्रकार है. वि शब्दका नाना, अनेक ऐसा अर्थ है. निस् यह उपसर्ग है. 'बाहर' बाह्य यह निम् उपसर्गका अर्थ है. ' पढि ' धातु गमन करना इस अर्थका बाधक है. विणिप्प इस पद का समुच्चयार्थ 'नाना प्रकारसे बाहर जानेवाले मनको वापिस आरमामें लौटाना चाहिये' यह हैं. शंका- यदि अभ्यंतर कोई चीज हो तो उसकी अपेक्षा बाह्य पदार्थकी सिद्धि होगी. यहां अभ्यंतर चीज कोनसी है ? उत्तर - यहां रत्नत्रयको अभ्यंतर वस्तु कहते हैं, इसको अभ्यंतर वस्तु क्यों कर कहना चाहिये ? उत्तर - यह रत्नत्रय आत्माका स्वरूप है अतः इसको अभ्यंतर कहना चाहिये. रागद्वेषादिक विकार चारित्र मोहके उदयसे होते हैं अतः वास्तु है, मिथ्यात्व काय वगैरह भेदोंसे राग द्वेषादिकों में विचित्रता आती है। इन विकारोंके तरफ मनकी मवृत्ति हुई हो तो उसको वहां से हटाकर आत्मामें प्रवृत्त करना चाहिये. जिनके साहाय्य से मनको आत्माभिमुख कर सकते हैं ऐसे विचार कोनसे हैं इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार हैमैं यदि श्रद्धान करूं, यदि हिंसा करना, झूठ बोलना, चोरी करना इत्यादि पापरूप परिणति मेरे में हो जावेगी, यदि क्रोध, मान, मायादिक मेरे में उत्पन्न होंगे तो चार प्रकारके कर्मबंध उत्पन्न होंगे, जन्मजरामरणरूप अनंतसंसार के कारणभृत कर्मो का प्रकृतिबंध मेरे आत्मप्रदेशों में होगा. इस कर्मके मूल प्रकृतिभेद आठ हैं, उत्तर प्रकृतिभेद संख्यात असंख्याती होते हैं. कर्म आत्मामें आकर स्थिर होना स्थिति बंध है. अश्रद्धान, असंयम, कपराय इत्यादि परिणामों में तीव्रता, मध्यमता, मंदता, उत्पन्न करनेवाला जो कर्मका सामर्थ्य उसको अनुभवबंध कहते हैं. अश्रद्धानादि परिणामोसे चार प्रकारके कर्मबंध जीवमें होंगे. आत्माके समस्त प्रदेशों में अनंतानंत प्रदेशयुक्त पुइलस्कंधरूप यह कर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भावका साहाय्य प्राप्तकर नवीन मिध्यात्व, असंयम, कपायादि परिणामोको उत्पन्न करते हैं. जिसके समस्त कारण इकट्ठे होते हैं वह कार्य अवश्य होता है. इस न्यायसे कर्मको द्रव्य, क्षेत्र, कालादि सामग्री मिलनेपर वह मिध्यात्वादि परिणामोंका अवश्य उत्पन्न करेगा ही. अश्रद्धानादि परिणामोसे जीव कर्मका स्वीकार करता है. स्वीकृत कर्म आत्मामें स्थिर होता है, और अपना प्रभाव दिखाता है. फिर नवीन कर्मबंध होनेसे जीवको अनंतकालतक संसारमें भ्रमण करना पडेगा यह वडा भारी अनर्थ होगा. इस विचारसे जो मनको वाह्य मिथ्यात्वादि परिणामोसे हटाकर आत्मामें स्थिर करेगा उसको ही मुनिपनाकी सच्ची प्राप्ति होती है. आश्वास २ ३२२
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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