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"मूलाराधना
भाषाम
गृहस्थोंके सत्कार, सन्मानमें जो मोह नहीं करता है, जो आतिथि और भत्तादिकों पर मोहयुक्त नहीं होता है ऐसे मुनिको अप्रतिघद्र कहते हैं, निर्यापकाचार्यका शोध करनके लिये निकले हुए मनिका स्वरूप इस प्रकार है.
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आलोयणापरिणदो सम्म संपच्छिदो गुरुमगागं ॥ जदि अंतरा हु अमुहो हवेन्ज आगहओ होज ॥ ४.४ ।। यद्यपि प्रस्थितो मूले सरेरारालोचनापरः
संपद्यते सरां मूकस्तथाप्याराधको मतः ॥ ४॥५॥ बिजयोदया-वालोषणापरिणदो रत्नश्यातिचारान्मनोवाकायविकल्पान्महीयान्गुरी निवेदयिष्यामीति हन. संकल्पः । सम्म आलोचनादोषाम्परित्यज्य संपत्धिदो यातुमुद्यतः । गुरुसगासं गुरुसमीपं । जदि अंतरा रघु यद्यन्तराल एव । अमुहो हवेज्ज पतितजिलो भवेत् । आराध होज आराधको भवति ||
सभ्यगालोचयिष्यामीति भनिधानपरो गुहस नुसं चलितो देवादतरराले गर्व अवचनीभनाइयायको :नन उपदिशति
मूलारा-आलोयणापरिणदो रत्नत्रवातिचारान्मनोवाकायविकरूपानाम्नीयान्गुगनिदायनीति सम्म सम्यक् आलोचनादोष परित्यज्येत्यर्थः । संपत्श्रिदो यातुनुनादः । अमुष्टी निगराः ।
अर्थ-मन वचन और कायके द्वारा रत्नत्रयमें जो अतिचार लंग हैं य सब गुरूके पास जाकर म कहूंगा अर्थात् गुरुके समीप दोषाकी आलोचना करूंगा ऐसा मन में विचार कर जो साधु गुरुके पास जाने के लिये निकला परंतु यदि मार्गमें ही वह मुकावस्थाको प्राप्त हो जाये तो भी वह आराधक होता है-आगधक माना जाता है.
आलोचणापरिणदो सम्मं संपच्छिओ गुरुग्यास ॥ जदि अंतरम्मि कालं करेज्ज आगहओ हाइ ।। ४.'' !। यद्यपि प्रस्थिमो मूले सूररालोचनापरः ।। विपद्यतेतरालऽपि तथाप्याराधकोऽस्ति सः।। ४१६॥
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