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को आहर दिया था इत्यादि सूक्ष्म दोपाको जो कहता है उसकी आलोचना शुद्ध नहीं है.
आश्वास
मृगारावना
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इय जो दोसं लहुगं समालोचेदि गृहदे थूलं ॥ भयमयमायाहिदओ जिणवयणपरंमुहो होदि ।। ५८१ ॥ स्थूलं सूक्ष्मं च घेदोष भाषते न गुरोः पुरः ॥
मायाग्रीडामदाविष्टः सदा दोषोऽस्ति पंचमः ॥६.७॥ विजयोदया- इय एवं । जो यः। दोस अतिचारं । कीडग्भूतं ? लहुर्ग स्वल्पं । आलोचेदि कथयति। विणिगृहदि विनियां :
किंमपूर मामयमायादो भयममायासहितचित्तः । महतो दोशन्यवि प्रवीमि महत्मायfinitiत मामिति था। वृथा निरातचारचारप्रसर्वसमानभंगासहा स्थूलान शक्रोति षफ्तं। कधिप्रकृत्यैव मायावी सोऽपि न निगदति । जिणखयणपरंमुदो होदि । जिनवचनपराजमुसो भवति ।
___ मूलारा-भयममायाहिदओ भयं, मदो, माया वा इदये चित्ते यस्यासौ बहुप्रायश्चित्तं मयेन सधर्मत्यजनभयेन वा सूक्ष्म व कोषं षक्ति, स्थूल प्रच्छादयति । यूवानिति चारचारित्रोऽस्मीति गर्वान स्थूलान्यक्ति । मायावी तु प्रकृत्यैवचकत्याच तान्वक्ति । उक्तंच---
भासने शयेन स्थाने संस्तरे गमनेशन || आर्द्रगावपरामर्शगभिण्या घालवत्सया ॥ परिनिटे भवदीयो यः सूक्ष्मः स निगद्यते ।।
स्थूल प्रलादा यनासौ जिनवाक्यपराङ्मुखः ।। अर्थ--इस प्रकार जो छोटे छोटे दोष कहकर बडे दोष छिपाता है. वह मुनि भय, मद, और कपट इन दोषोंसे भरा दुआ जिनवचनसे परामुड्मय होता है. बडे दोष यदि मैं कहूगा तो आचार्य महाप्रायश्चित्त देंगे. अथवा मेरा त्याग करेंगे ऐसे भयसे कोई बडे दोष नहीं कहता है. मैं निरनिचार चारित्र हूं ऐसा समझकर स्थूल दोपोंको मर्वयुक्त होकर कोई मुनि कहता नहीं. कोइ मुनि स्वभावसे ही कपटी रहता है अतः वह भी बड़े दोष कहता नहीं इस वास्ते ये मुनि जिनक्लनसे पराङमुख हैं.
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