SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 874
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ माश्चम सर्वथा अनियहरेसर्वथा एकाको सबा अन सत्रया सहप ही है, सर्वथा विज्ञानरूप ही है, सर्वथा शन्य ही है. इत्यादि मना सिद्धांतों को पूर्वपक्षमें स्थापित कर उत्तरपक्षीय सिद्धांत प्रत्यक्षः अनुमान और आगगने विरुद्ध है ऐसा सिद्ध करके धम्तुका स्वरूप कथंचित् अनित्य, कथंचित् एक, कथंचित् अनेक, इत्यादिरूपसे जनमतंक द्वारा सिद्ध करना यह विक्षेपणी कथाका वस्तुस्वरूप है. संवेयणी पुण कहा णाणचरितं तवीरिय इदिगदा ॥ णिव्वेयणी पुण कहा सरीरभोगे भवोधे य ॥ ६५७ ॥ संवेजनी कथा ब्रूते ज्ञानचारित्रवैभवा ॥ निवेदनी कथा वक्ति भोगांगादेरसारताम् ॥ ६८३ ॥ विजयोदया-संघयणी पुण कहा संवेजनी पुनः कथा । णायचरित्ततवपीरिय दिगदा शानचारित्रतपोभावना जनितशक्तिसंपत्रिकपणपरा । णिम्पेजणी पुण कथा गिजनी पुनः कथा सा । सरीरभोगे भवोघेय शरीरे, भोगे, भवसंतती च पराङ्मुखताकारिणी शरीराण्याचीनि, रसादिसप्तधातुमयत्वात् । शुक्रशोणितबीजत्यात, अशुच्याहारपरिवर्द्धितत्वात् अशुचिस्थाननिर्गतत्यास् च न केवलमशुच्यसारमपि । अनित्यफायस्वभाषाः प्राणभृतः इति शरीस्तत्वाश्रयणात् । तथा भोगा दुर्लभाः स्त्रीवखगंधमाल्यभोजनादयो लब्धा अपि कथंचिन्न तृप्ति जनयन्ति । अलामे तेषां, लब्धानां वा विनाश शोको महानुदेति । देवमनुजभवाचपि दुर्लभौ, दुःखबहुलौ अलसुखौ इति निरूपणात् । तथा। मूलारा-गाणेत्यादि-मानचारित्रतपोभावनाजनितशाक्तसंपनिरूपणपस । भवोये भवसंतती शरीरादियाय अशुचित्वादितत्त्वनिरूपणेन परामुखताकारिणी निर्वेदनीति व्यासयेत्रम। अर्थ-ज्ञान, चारित्र, तप इनका अभ्यास करनेसे आत्मामें कैसी २ अलौकिक शक्तियां प्रगट होती हैं इनका खुलासेवार वर्णन करनेवाली कथाको संवेजनी कथा कहते हैं. शरीर, भोग और जन्म परंपरा में विरक्ति उत्पन्न करनेवाली कथाका निवजनी कथा ऐसा नाम है. इसका खुलासा-शरीर अपवित्र है क्योंकि यह रस, रक्त, मांस, शुक्र वगैरह सप्त धातुओंसे बना है. रक्त और बीर्य इसके उपादान कारण हैं. अपवित्र आहारसे इसकी वृद्धि हुई है, अर्थात् मातान खाया हुशा और सालारससे अपवित्र उत्रिए बना बाहार गर्भावस्था में जीवके शरीमें प्रविष्ट होता है तब यह शरीर बढ़ता है, अशुचिस्थानसे-योनीसे यह निकला है इस लिये भी अपवित्र है. न केवल यह *
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy