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________________ मूलाग 100 मायके कुधा जातु प्रसाद (वृत्त) वर्धके ॥ विज्ञाय दुर्लभां बोधि निःसारे मानुषे भवे ॥ २२४ ॥ विजयोदया- कृष्ण अमादमा येषु | अभ्यर्हितः संयम इति पूर्वनिपातः । भवति । असं व्यजनीति भावपक्रियाविद्युत्ती पिसारे मासे साररहिते मनुष्य बुद्धि । विजापिता झात्या | इतो गणं शिव- कुरुताश्वकेषु । सेजमा संयमस्य तपसश्राश्रविना न तपः शक्नोति कर्तुं मुक्तिमिति मानायिका प्रवर्तमानस्य संयो सत्यां कर्माणि तपतीति तयो भवति । नान्यथेति तपसोऽप्याश्रयः । अशुचिता मनुजानां असारं । तत्र दुर्लभ योधि दुर्लभां दीक्षाभिमुख मूलारा— कुणभ कुरुत यूत्रं भो यतयः अपनादं अवधानं । उपहाणं उपधानं अवग्रहविशेष: । विस्तारे अनिता अशुचिता वा साररहिने बोधि दुर्लभां दीक्षाभिमुख बुद्धिम् । अनि गण! मम प्रमादका त्याग करो क्योंकि आवश्य क्रिया संयम और तपका आश्रयस्थान है. संयम और तप इन दोनोमेंसे संयमको श्रेष्ठपना है इस लिये गाथामें संयम शब्द प्रथम और तप शब्द अनंतर है. संयमके बिना केवल तप मुक्तिदायक नहीं है. जब मुनि सामायिकादि आवश्यकों में प्रवृत्त होता है तब उसकी संयम प्राप्त होता है और असंयम का त्याग होता है, सावधक्रियाका त्याग होने पर तप कर्मीको संतृप्त करता है तभी उसकी तप यह संज्ञा प्राप्त होती है, अन्यथा नहीं, अतः आवश्यक क्रिया तपका भी आश्रय स्थान है, यह गनुजजन्म साररहित, अनित्य, अपवित्र है. ऐसे मनुष्यजन्म में दीक्षा ग्रहण करने के प्रति वृद्धि होना दुर्लभ है ऐसा जानकर पडावयकों में प्रमाद कभी भी तुम भत करो. समिदा पंचसु रामिदीसु सव्वदा जिणत्रयणमगमदीया || तिहिं गारवेहि रहिदा होह तिगुत्ता य दंडेसु ॥ २९७ ॥ संज्ञागीरवरौद्रार्त ध्यानकोपादिवर्जिताः ॥ समिताः पंचभिर्गुतास्त्रिभिर्भवत सर्वदा ।। २९५ ।। भाश्वासः ४ ५०९
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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