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________________ आश्वासः दुलाराधना १८५१ अर्थ----इस प्रकार इस आराधनाकं भेद संक्षेएसे मैंने कहे हैं क्योंकि इसमें आराधना प्रतिपाद्य विषय है और प्रतिपादक शुतज्ञान है. यह श्रुतज्ञान मरे में अल्प है अतःमने आराधनाका संक्षपसं वर्णन किया है. आराधणं असेसे वण्णेर्यु होज्ज को पुण समत्थो॥ सुदकेवली वि आराधणं असेस ण वणिज ॥ २१६४ ॥ आराधनषा कथिता समासतो ददात सिद्धिं मम मंदमेधसः । अयुध्यमानैरखिलं जिनागमं न शक्यते विस्तरतो हि भाषितु ॥ २२३६ 11 विजयोदया-आराधणं असेस निरवशेषामायधनां वर्णयितुं कस्समर्थो भवेत्, श्रुतकेवल्यपि निरवशेष न वर्णयेत् मूलारा-को म पश्चिदल्पवतो निशेषांमाराधनां वर्णयितुं क्षमते इत्यर्थः । तहिं धुतकेवळी ता समस्तां वर्णयितुं प्रभविष्यती सत्राह-सुवेत्यादि एसेन भगवान्सर्वक्ष एवाराधनासर्चस्वव्यावर्णने समर्थ इति गमयति अर्थ-इस आराधनाका सविस्तर वर्णन करने में कोन समर्थ है ? क्योंकि श्रुतकेवलिभी संपूर्ण आराधनाका वर्णन नहीं कर सकेंगे, अर्थात केवलज्ञानी अर्हद्भगवान् ही इसका वर्णन करने में समर्थ है. अन्य नहीं है. अज्जजिणणनिगणि, सत्वगुत्तगणि, अज्जमित्तणंदीण || अवगामिय पादमूले सम्म सुत्तं च अत्थं च ।। २१६५ ॥ बिजयोदया-अज्जाजणणंदि धाचार्यजिननंदिगणिनः, सर्वगुप्तगणिनः, भाचार्यमित्रनंदिनच पादमूले सम्यगर्थ श्रुतं वावगम्य ॥ इदानीमात्मनः सांप्रदायिकत्वमवधानपरत्वं ए प्रकाशयन्नात्मकर्तृकत्वेनास्य शास्त्रस्य विनेजयनविश्वासनाय प्रमाणता व्यवस्थापयितुं गाथाद्वयमाह - मूलरा--अज्जजिपणं दिगणि मुमुक्षुजनाभिगम्य आर्य जिननंद्याचार्यः। सत्वगुत्तगणि सर्वगुणाचार्यः । अज्जमित्तणंदीणं आचार्यमित्रनंदी। आगमिय पठित्वा एतेनात्मनः सूत्राषिसंवादकत्वमुक्तम् ।। अर्थ--आर्य जिननंदिगणि, आर्य सर्व गुप्तगणी, तथा आर्य मित्रनंदिगणी इनके चरणमूलमें मैने उत्तम रीतीसे श्रुत और उसके अर्थका अध्ययन किया है. तदनंतर १८५१
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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