SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 8 आश्वासः मृताराधना SsehareRATAsiaRaTAR ब्रह्मवृत और परिग्रहत्यागवत कहते हैं. श्री उमास्वामी आचार्य 'हिंसान्तस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विनित' ऐसा व्रतका कथन करनेवाला मन्त्र कहते हैं. ये हिंसादिक क्रियाविशेष आत्माक परिणाम है उनसे परायन होना अथीत हिंसादिकॉमें परिणति न होना ही व्रत है गला उपयुक्त मूत्रका अभिप्राय है. हिंसादिकोंसे परावृत्त होना इस प्रकारका जो आत्माका परिणाम है उसका रात्रिभोजन त्याग द्वारा, प्रवचन माताके द्वारा रक्षण होता है अर्थात् रात्रिभोजर त्याग और समिति गुप्ति ये अहिंसादि व्रताका रक्षण करते हैं. प्रवचन माना और रात्रिभोजन त्यागके अभावमें व्रत नष्ट होते हैं और इनक सद्भावमें ब्रताका रक्षण होता है. जिसके अभाव में जिसका नाश होता है और जिसके सङ्कायमें जो नष्ट नहीं होता है तो समझना चाहिए कि वह उसका रक्षण करता है, जैसे दुगके अभावमें राजाका नाश होता है और उसके सद्भावमें रक्षण होता है. वैसे रात्रिभोजन त्याग, प्रवचनमाता व भावना इनके सद्भावमें हिंसादिकोंसे आत्मा परावृत्त होता है. और इनके अभावमें परावृत्त नहीं होता है इसलिए इनको आचायेने खतरक्षणार्थ माना है वह योग्य ही है. तेसिं पंचण्हं पि य अहयाणमावज्जणं व संका वा ॥ आदविवन्ती य हवे रादीमचप्पसंगम्मि ॥ ११८६ ॥ . हिंसादीनां मुनेः प्राप्तिः पंचानां सह शंकया ॥ विपत्तिर्जायते स्वस्थ रात्रिभुक्तस्तथा स्फुटम् ।। १२२५ ।। विजयोदया-तसि पंचण्हं पि य अहयाणमावजणं तेषां पंचानां हिंसादीनां प्राप्तिः । संका पा शंका या मम हिंसादयः संवृत्ता न वेति । हये भवेत् । रादीमत्तष्यसंगम्मि रानावाहाराप्रसंगे सति न केवलं हिंसादिषु परिणतिः । पिवत्तीय हविजा आत्मनश्च यतेः स्वम्यापि विपद्भघन् । स्थाणुसर्पकंटकादिभिः॥ रात्रिभोजने मुनेदर्दोषानाह मूलारा-अण्ड्याणं हिंसादीनां । आवजण प्राप्तिः । संका मम हिसादयः किं संवृत्ता न वेति शंका । आदधिवत्ती आत्मविपत् । रात्री भिक्षार्थ पर्यटतो यतेः सर्वकटकादिभिरुपसर्गश्च भवेत । पसंगम्मि प्रवृत्तौ सस्याम | उक्त च--- प्राप्तिः शंका च पंचानां हिंसादीनां यतेर्भवेत् ।। रात्रिभोजनसद्भाचे स्वविपत्तिश्च जायते ॥
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy