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आश्वास
लाराधना
उत्तर-अन्यमतमें कहा हुवा जीवादिक पदार्थोंका स्वरूप प्रत्यक्ष और अनुमानसे बाधित है. जीवादि पदार्थ सर्वथा नियही है या अनिरर ही है ऐसा उनके आगममें कहा हुआ है. पदार्थ सर्वथा नित्य वा अनित्य सिद्ध नहीं होते हैं. उनका नित्यानित्यपना सिद्ध होता है, जो वस्तुस्वरूप एक प्रमाणसे सिद्ध होता है वही अन्य प्रमाणसे भी सिद्ध हो तो वह वस्तु सातिशय मानी जाती है. और यदि प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध दुवा वस्तु स्वरूप अनुमानादिकसे बाधित होता है तो वह वस्तु सातिशय नहीं है. अस्तु. यह जिनप्रतिपादित शब्दश्रुतज्ञान पूर्व कालमें इस जीवने कभी सुना नहीं है.
शंका-भव्य अथवा अभव्य जीयक कर्णपथ पर यह शब्द श्रुत आयादी होगा अतः आप इसको अश्रुतपूर्व नहीं कह सकते हैं. इस शंकाका कोई ऐसा समाधान करते है.
"जो शब्द सुने उनके अर्थके तरफ ध्यान नहीं दिया अथवा उनका अर्थ ज्ञात नहीं हुआ तो वह अश्रुतपूर्व ही है" यह समाधान भी योग्य नहीं है. शब्दात्मक श्रुत सुनकर उसके अर्थको भी अनेकवार जान लेते हैं तथापि वह अनुतपूर्व ही समझना चाहिये. उपर्युक्त शंकाका परिहार इस प्रकार समझना चाहिये-शब्दात्म श्रुत सुनकर उसके अर्थ को भी समझ लिया परंतु उसके ऊपर यदि श्रद्धा नहीं है तो वह सब सुनकर और जान लेने पर भी अश्रुतपूर्व ही समझना चाहिये. इस शब्दश्रुतके अध्ययनसे अपूर्व अर्थोका ज्ञान होता है. और उत्तरोत्तर संवेगधर्मश्रद्धा बहनसे मनमें बड़ा आनंद उत्पन्न होता है, संवेग शब्दका अर्थ संसारभीरता ऐसा होता है परंतु उपयुक्त अर्थ असंबद्ध दिखता है एसी शंका भी ठीक नहीं है. जैसे मेरे अंगपर शस्त्रप्रहार होगा इस भयसे वीरपुरुष कवच धारण करता है अर्थात् शस्त्रप्रहारभय यह कवच धारण करनेका हेतु है वैसे संसारभीरुता यह कारण है और उससे उत्पन्न हुई धर्मश्रद्धा कार्य है, यहां आचार्यने संवेग शब्द कार्यरूप धर्मश्रद्धा में रूह किया है ऐसा समझना चाहिये.
REARREARNADA
निष्कंपताख्यानायाह
आयापायविदण्डू दसणणाणतवसंजमे ठिच्चा ।। विहरदि विसुज्झमाणो जावो दु णिकंपो ॥ १०६ ।।