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________________ मूलाराधना २०८ अर्थात् अपवाद लिंगधारक गृहस्थ जब भक्तप्रत्याख्यानके लिये उक्त होता है तब उसके पुरुषलिंगमें यदि दोष न हो तो औत्सर्गिक लिंग नग्रता धारण कर सकता है. गृहस्थ के पुरुषलिंगमें चर्म न होना, अतिशय दीर्घता, वारंवार चेतना होकर ऊपर ऊठना ऐसे दोष यदि हो तो वह दीक्षा लेनेके लायक नहीं हैं. उसी तरह उसके अंड भी यदि अतिशय लंबे हो, बड़े हो तो भी गृहस्थ नम्रताके लिये अयोग्य है. परंतु एवं दोषविशिष्ट भी गृहस्थ भक्त प्रत्याख्यानके समय एकान्तादिक में सर्व परिग्रहका त्याग करके नम्र रह सकता है. जिसको उपर्युक्त दोष है वह औत्सर्गिक लिंगका धारक नहीं होता है इस नियमका अपवाद कहते हैं भौत्सर्गिकं लिंग न भवत्येवेत्यस्यापवादमाह - जस्स वि अव्यभिचारी दोसो तिठाणिगों बिहारस्मि ॥ सो विहु संथारगदो गेहेज्जोस्मुग्गियं लिंगं ॥ ७८ ॥ यस्य त्रिस्थानगो दोषो दुर्निवारो विरागिणः ॥ लिंगमत्सर्गिकं तस्मै संस्तरस्थाय दीयते ॥ ८० ॥ विजयोदया - जस्स वि यस्यापि । अव्याभिचारी अतिराकार्यो। दोस्रो दोषः । तिद्वाणिगो स्थानत्रयभवः मेहने वृषणयोश्च भवः भौषधादिनानपसार्यः । सोऽपि तु शब्द पवकारार्थः स च गेण्हेज स्यनेन संबंधनीयः । गृण्डीयादेव किं ? उग्गिमं लिंग औत्सर्गिक अलतालक्षणं । के बिहार विद्वारे वसती, संधारगदे संस्तरारूढः संस्तरारोहणकाले । एवं संस्तरामस्यैव औत्सर्गिकं नान्यत्रेत्याख्यातं भवति । अस्तालिंगम्यत्सर्गिकं लिंग न भवत्येवेत्यस्यापवादमाह मूलारा-अब्बगिचारी औषधादिना निराकर्तुमशक्यः । विट्टाणीओ त्रिषु स्थानेषु मेदवृपाणयोश्च भवः म प कुटो लिंग दुधगत्थं स्तत्वं च । बिहार बसती । खु एयार्थे । संस्तरगत एवं गृहीयादेवेत्यर्थः । उत्सगिये अलता क्षणं ॥ हिंदी अर्थ - जिसके उपर्युक्त तीन दोष औपधादिकोंसे नष्ट होने लायक नहीं है वह ययतिकामें जब संस्रारूढ होता है तब पूर्ण न रह सकता है. संस्तरारोहण के समयमेही वह नम रह सकता है अन्य समय में उसको गना है. आश्वास: २ 206
SR No.090289
Book TitleMularadhna
Original Sutra AuthorShivkoti Acharya
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1890
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Philosophy, & Religion
File Size48 MB
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