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लाराधना
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दर्शनशुद्धि — निःशंकित वगैरह गुणोंकी आत्मामें परिणति होना यह दर्शनशुद्धि है. यह शुद्धि होने से शंका, कांक्षा, चिकित्सा वगेरह अशुभ परिणामरूपी परिग्रहांका त्याग होता है.
ज्ञानशुद्धि -- योग्य कालमें अध्ययन करना, जिससे अध्ययन किया है ऐसे गुरुका और शाखका नाम न छिपाना इत्यादिरूप ज्ञानशुद्धि है. यह शुद्धि आत्मामें होनेसे अकालपठनादिक क्रिया जो कि ज्ञानावरण कर्माaasो कारण है त्यागी जाती है.
चारित्रशुद्धि-- प्रत्येक व्रतकी पांच पांच भावनायें हैं. पांच व्रतोंकी पच्चीस भावनायें होती हैं इनका पालन करना यह चरित्रशुद्धि है. इन भावनाओंका त्याग होनेसे मन स्वच्छंदी होकर अशुभपरिणाम होते हैं. ये परिणाम अभ्यंतर परिग्रहरूप हैं. व्रतोंकी भावनाओंसे अभ्यंतर परिग्रहोंका त्याग होता है.
विनयशुद्धि कीर्ति, आदर इत्यादि लौकिक फलोंकी इच्छा छोड़कर साधर्मिकजन, गुरुजन इत्यादिकोंका विनय करना यह चिनयशुद्धि है, इसके होनेसे उपकरणादि लोभका अभाव होता है,
आवश्यक शुद्धि--- सावद्ययोगोंका त्याग, जिनगुणोंपर प्रेम, वंद्यमान आचार्यादि गुणोंका अनुसरण करना, किये हुए अपराधोंकी निंदा करना, मनसे अपराधोंका त्याग करना, शरीरकी असारता और अपकारीपनाका विचार करना यह सब आवश्यक शुद्धि है, यह शुद्धि होनेपर अशुभ योग, जिन गुणोंपर अप्रेम, आगम, आचार्यादि पूज्य पुरुषोंके गुणोंपर अभीति, अपराध करने पर भी मन में पश्चात्ताप न होना, अपराध का त्याग न करना, और शरीरपर ममता करना ये दोष परिग्रहका त्याग करनेसे नष्ट होते हैं.
पंचविधविवेकख्यापनायोधता गाधा
इंदियकसा उवधीण भत्तपाणस्स चावि देहस्स || एस विवेगो भणिदो पंचविधो दव्वभावगदो ॥ १६८ ॥ विवेको भक्तपानांगकषायाक्षोपधिश्रितः ॥ पंचधा साधुना कार्यो द्रव्यभावगतो द्विधा ॥ १७० ॥
आश्वासः
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